दो टूक : मुफ्त रेवडी की आदत जनता और नेताओं दोनों को खूब रिझाती है तो कैसे हो बंद

राजेश श्रीवास्तव


लखनऊ।  पिछले दिनों एसबीआई ने अपनी रिपोर्ट में राजनीतिक दलों द्बारा रेवड़ी बांटे जाने को बेहद चिंताजनक बताया था। उसने कहा था कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर निगहबानी न की तो देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो सकती है। अकेले भारतीय स्टेट बैंक की ही यह चिंता नहीं है। पिछले दिनों चुनाव आयोग ने भी राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर कहा कि उन्हें लोक-लुभावन वादों की घोषणा करते समय यह भी बताना चाहिए कि वे उन्हें पूरा करने के लिए राजस्व कहां से जुटाएंगे। लेकिन जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही इस तरह की रेवडी बांटे जाने पर अपनी तल्ख टिप्पणी जता चुका है।

लेकिन अब तक न तो किसी राजनीतिक दल ने इस पर अपनी चुप्पी तोड़ी है और न ही खुलकर राय रखी है । सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अभी खामोश है और कांग्रेस समेत अन्य दलों ने चुनाव आयोग के इस पत्र पर आपत्ति जतायी है। इन सभी राजनीतिक दलों के रवैये से यह साफ है कि आगे आने वाले चुनावों में राजनीतिक दलों द्बारा मुफ्त की रेवड़ियां बांटे जाने पर किसी तरह की रोक लग सकेगी, इस पर संशय तय है। दिलचस्प यह है कि चाहे चुनाव आयोग हो या फिर भारतीय स्टेट बैंक। सबकी अपनी मजबूरियां हैं, वह राजनीतिक दलों को निेर्दश नहीं दे सकती केवल पत्र व्यवहार या फिर सलाह दे सकते हें कि इस पर रोक लगायें। लेकिन उस पर सख्ती से अमल करने का आदेश नहीं दे सकते। जो व्यवस्था है वह केवल खानापूरी बनकर रह गयी है।

राजनीतिक दलों ने यह मान लिया है कि जनता को लुभाने वाले वादे करके चुनाव जीते जा सकते हैं। नतीजा यह है कि मुफ्त बिजली-पानी संग मोबाइल फोन, लैपटाप, स्कूटी आदि देने की घोषणाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जैसे चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह मतदाताओं को बताए कि वे अपने मत का उपयोग सोच-समझ कर करें, वैसे ही यह देखने की भी कि राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए अनुचित तौर-तरीके न अपनाएं। मतदाताओं को रिझाने के लिए राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में लंबे-चौड़े वादे करते हैं। जब वे चुनाव जीत जाते हैं तो फिर इन वादों को पूरा करने
के चक्कर में तमाम नियमों की अनदेखी करते हैं, मनमानी महंगाई बढ़ाते हैं। आम जनता से भारी-भरकम राशि वसूल कर मुफ्त रेवड़ी बांटने में खर्च करते हैं। जिससे कुछ वर्ग तो खुश होते र्हैं लेकिन आम जनमानस में आक्रोश बढ़ता है। देश और प्रदेश का आर्थिक संतुलन बिगड़ता है। योजनाओं में कटौती होती है। सरकारेें कर्ज ले लेती हैं और देश व प्रदेश की आर्थिक प्रगति रुक जाती है।

दूसरी तरफ जनता का भी इस तरह की योजनाओं से नुकसान ही होता है। जिस वर्ग को इन योजनाओं के लाभ का आश्वासन दिया जाता है या आच्छादित किया जाता है, वह भी मुफ्तखोरी का आदी हो जाता है। उसे काम करने में मुश्किल आने लगती है। और फिर जब इस तरह की योजनाओं पर रोक लगती है तो उसे मुश्किल आती है। इस समय भी देश में केंद्र सरकार की और से और कई राज्य सरकारों की ओर से मुफ्त राशन आदि की योजनाएं चल रही है। खुद उत्तर प्रदेश सरकार ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले अगले एक साल तक मुफ्त राशन का ऐलान किया था, हालांकि उसे अभी चुनाव जीतने के बाद यानि कुछ महीने पहले ही इस योजना को बंद किया गया है।

वह तो गनीमत हो कि केंद्र की ओर से यह योजना अभी चल रही है केवल प्रदेश सरकार ने बंद की है। अगर केंद्र न चलाता तो यूपी की जनता इस समय आक्रोशित होती और सरकार को इस योजना बंद करने का खामियाजा भुगतना पड़ता। इसी प्रवृत्ति को प्रधानमंत्री मोदी ने रेवड़ी संस्कृति करार देकर एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दिया है। जबकि कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, डीएमके जैसे दल यह तर्क दे रहे कि मुफ्त सेवाएं देना जनकल्याण का काम है और यह उनके राजनीतिक अधिकार में आता है, तब यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर कल्याणकारी योजनाओं और रेवड़ियां बांटने में कोई अंतर किया जाएगा या नहीं? सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों में इस तरह के खटराग पुराने हैं। जो सरकार सत्ता में है यानि कि भाजपा वह कहती है कि हम कल्याणकारी योजनाएं चला रहे हैं जबकि विपक्ष यह कहता है वह करें तो जनसेवा और हम करें तो रेवड़ी। यानि कि इस पूरी कवायद को ही सियासत का शिकार बना दिया गया है। भले ही केंद्र सरकार यह दावा करे कि वह निर्धन लोगों को रियायत या सरकारी सहायता अथवा वस्तुएं देती हैं, लेकिन समस्या तब होती है।

जब ऐसा करते हुए मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है और वित्तीय स्थिति की अनदेखी की जाती है। यह सरकारों का दायित्व है कि वे अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाएं, क्योंकि जब वह बढ़ेगी, तभी लोगों को नौकरियां मिलेंगी। जब केंद्र अथवा राज्यों के पास धन होगा तभी तो वे शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बुनियादी ढांचे पर बेहतर खर्च कर पाएंगे। इससे ही लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा। अपने देश में जिन राज्यों में तेजी से विकास हुआ, वहां शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर करने, बुनियादी ढांचे के विकास और कानून एवं व्यवस्था में सुधार करने को प्राथमिकता दी गई। राज्य ऐसा तभी कर सके, जब उनके पास धन आया और उन्होंने मुफ्तखोरी की संस्कृति को नियंत्रित किया।

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