- जतीन्द्रनाथ मुखर्जी की अमर गाथा, जिनके संकल्प ने अंग्रेजी सत्ता की नींद उड़ाई
वरुण कुमार
भारत का स्वतंत्रता संग्राम किसी एक क्षण का परिणाम नहीं, बल्कि अनगिनत बलिदानों, संघर्षों, आंदोलनों और क्रांतिकारियों की अथाह तपस्या का फल है। इतिहास में कुछ योद्धा ऐसे हुए जिन्होंने तलवार से अधिक तेज अपने साहस, संगठन शक्ति और राष्ट्रप्रेम की आँधी से अंग्रेजी साम्राज्य को चुनौती दी। जतीन्द्रनाथ मुखर्जी, जिन्हें भारत प्रेम से “बाघा जतीन” कहा गया, ऐसे ही क्रांतिकारियों के शीर्ष पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व जितना सरल, उतना ही दृढ़; जितना शांत, उतना ही ज्वलंत था। वे उन योद्धाओं में से थे जिनकी उपस्थिति भर से युवाओं में बिजली-सी उर्जा भर जाती थी।
प्रारंभिक जीवन और ‘बाघा’ बनने की कहानी
जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म 7 दिसंबर 1879 को बंगाल के कुश्तिया (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ। पिता का देहांत बचपन में ही हो गया, पर माँ शारदा देवी ने उनमें नैतिकता, साहस और देशप्रेम के संस्कार रोपे। बाल्यकाल से ही वे शाररिक रूप से मजबूत और दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी थे। शरीर-कौशल, कुश्ती, तैराकी, घुड़सवारी और शस्त्रकला में उनका विशेष रुझान रहा। पढ़ाई में बुद्धिमान और व्यवहार में विनम्र जतीन सदैव सबके प्रिय रहे। एक बार गांव के पास एक खूंखार बाघ ने आतंक मचा रखा था। उस समय जतीन ने नंगे हाथों, केवल एक छोटे चाकू की सहायता से उससे सामना किया और उसे मार गिराया। इस अद्भुत घटना ने उन्हें ‘बाघा जतीन’ नाम प्रदान किया, जो आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का स्थायी परिचय बन गया।

क्रांतिकारी विचारों की नींव
युवावस्था में आने के बाद जतीन का मन देश की दयनीय स्थिति देखकर विचलित हुआ। वे समझ चुके थे कि केवल भाषणों और निवेदनों से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी, इसके लिए सशस्त्र संघर्ष आवश्यक है। इसी सोच के साथ वे अनुशीलन समिति से जुड़े, जो बंगाल में सक्रिय गुप्त क्रांतिकारी संगठन था। जतीन ने युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देने, संगठन तैयार करने और शस्त्र-संग्रह के कार्य में निर्णायक भूमिका निभाई। धीरे-धीरे वे युगांतर दल के प्रमुख नेता बने। उनके जीवन का लक्ष्य स्पष्ट था—“स्वाधीनता की भीख नहीं, संघर्ष द्वारा प्राप्त अधिकार।
वे युवाओं को कहते… “जो देश से प्रेम करता है, उसे बलिदान से भय नहीं होना चाहिए।”
अंग्रेजी शासन के लिए चुनौती
1912 में भारत के वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम हमला हुआ। यह घटना ब्रिटिश शासन के लिए बहुत बड़ा झटका थी। यद्यपि इस हमले में प्रत्यक्ष रूप से जतीन सम्मिलित नहीं थे, पर अंग्रेजी शासन जानता था कि इस आंदोलन की जड़ में बाघा जतीन की योजनाएँ और उनका प्रभाव है। इसके बाद भारत सरकार ने उन्हें “भारत में क्रांति का सबसे बड़ा सूत्रधार” कहकर उनके पीछे गुप्त निगरानी बढ़ा दी। परंतु जतीन डिगे नहीं। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध (1914-15) के समय एक साहसिक योजना बनाई—जर्मनी से सहयोग लेकर हथियारों का आयात और देशव्यापी विद्रोह। यदि यह योजना सफल होती, तो अंग्रेजी शासन की जड़ें हिल जातीं। बाघा जतीन ने सैकड़ों युवाओं को गुप्त रूप से प्रशिक्षित किया, समुद्री मार्ग से हथियार मंगाने के प्रयास किए और स्वतंत्रता के लिए व्यापक रणनीति विकसित की। अंग्रेजों के खुफिया विभाग ने जब यह जानकारी प्राप्त की, तब उन्होंने जतीन को ‘सबसे खतरनाक’ क्रांतिकारी घोषित कर दिया।
बालेश्वर का अंतिम संग्राम
9 सितंबर 1915—बैटल ऑफ बालेश्वर। यह वही दिन था जब इतिहास ने वीरता को देखा, साहस को परखा और एक अमर कथा लिखी। बाघा जतीन अपने चार साथियों के साथ उड़ीसा के चसमकुंडा जंगल में थे। अंग्रेजी सेना ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। हथियार कम, सैनिक कम, पर मनोबल अडिग। अंग्रेजों की आधुनिक बंदूकें, मशीनगनें… और दूसरी तरफ मात्र कुछ रिवॉल्वरें। फिर भी जतीन ने कहा…
हम हारने नहीं आए, लड़ने आए हैं,
घोर युद्ध आरंभ हुआ। गोलियों की वर्षा के बीच जतीन मोर्चे पर डटे रहे। वे घायल हुए, रक्त से भीग गए, पर पीछे हटना स्वीकार न किया। अंत में भारी रक्तस्राव के कारण वे निर्जीव-से हो गए और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अस्पताल भेजा। 10 सितंबर 1915 को वे अमर हो गए।
मरणासन्न अवस्था में उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे,
“मैं नर हूँ, मरुँगा…पर अनेक जतीन जन्म लेंगे।”
बाघा जतीन की विरासत और संदेश
बाघा जतीन केवल एक योद्धा नहीं थे, रणनीतिकार, संगठक और नैतिक शक्ति के प्रतीक थे। उन्होंने दिखाया कि स्वतंत्रता केवल नारे लगाने से नहीं मिलती, उसे कर्म और साहस से अर्जित करना पड़ता है। उनकी योजना यदि पूरी होती तो संभवतः भारत का स्वतंत्रता संघर्ष वर्षों पहले निर्णायक मोड़ ले लेता। आज भी बंगाल, उड़ीसा और पूरे देश में उनकी स्मृति श्रद्धा से याद की जाती है। उनके नाम पर विद्यालय, सड़कें, स्मारक स्थापित हैं। युवा पीढ़ी जब अनुशासन, धैर्य और साहस का अर्थ समझना चाहती है, तो बाघा जतीन का जीवन दीपक की तरह मार्गदर्शन देता है। वे मानते थे कि संगठन में शक्ति है और क्रांति तभी सफल होती है जब हर युवा अपने भीतर एक जतीन जागृत करे। भारत उनका ऋणी है। बाघा जतीन केवल इतिहास का नाम नहीं, स्वतंत्रता का जीवंत प्रतीक हैं। उनकी शहादत हमें बताती है स्वतंत्रता का मूल्य खून से लिखी गयी उन गाथाओं में बसता है जिन्हें क्रांतिकारियों ने अपनी जीवन-रेखा बनाया।
