12 हजार 500 साल बाद लौटा डायर वुल्फ विज्ञान की जीत या प्रकृति से खिलवाड़?

अजय कुमार

अमेरिका की बायोटेक्नोलॉजी कंपनी कोलोसल बायोसाइंसेस ने विज्ञान की दुनिया में ऐसा प्रयोग कर दिखाया है, जो अब तक सिर्फ कल्पना का विषय माना जाता था। कंपनी का दावा है कि उसने करीब 12,500 साल पहले विलुप्त हो चुकी डायर वुल्फ प्रजाति को वापस धरती पर लाने में सफलता हासिल कर ली है। इस प्रोजेक्ट को न केवल विज्ञान के लिहाज से एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है, बल्कि यह नैतिकता, पारिस्थितिकी और जैव विविधता से जुड़े बड़े सवालों को भी जन्म दे रहा है। तीन वुल्फ पपीज रोमुलस, रेमुस और खलीसी का जन्म कराकर कंपनी ने टाइम मैगजीन के कवर पर जगह बना ली है और साथ ही दुनियाभर में एक नई बहस को हवा दे दी है। क्या वास्तव में इंसानी गलतियों को सुधारने की यह कोशिश आगे चलकर एक और बड़ी भूल साबित होगी?

कोलोसल बायोसाइंसेस ने अपने प्रयोगशाला में जो प्रक्रिया अपनाई, वो किसी विज्ञान कथा से कम नहीं लगती। अमेरिका के ओहायो राज्य में वैज्ञानिकों को वुल्फ के 72,000 साल पुराने दांत और खोपड़ी के अवशेष मिले थे। इनसे प्राचीन डीएनए निकाला गया और आधुनिक ग्रे वुल्फ की कोशिकाओं से मिलाकर एक जेनेटिक संरचना तैयार की गई। इसके बाद एल सेल तकनीक की मदद से इसे एक जीवित कोशिका में बदला गया और सरोगेट डॉग्स की मदद से भ्रूण को विकसित किया गया। करीब दो महीने बाद तीन वुल्फ पपीज का जन्म हुआ। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये वुल्फ पूरी तरह से अपने प्राचीन पूर्वजों जैसे नहीं हैं, लेकिन इनके भीतर डायर वुल्फ के व्यवहार और रूप-रंग की झलक मिलती है। अभी ये तीनों पपीज अमेरिका की एक अज्ञात जगह पर रखे गए हैं, जहां वैज्ञानिक उनकी गतिविधियों पर बारीकी से नजर रख रहे हैं।

लेकिन इस उपलब्धि के साथ ही कई सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या धरती से हजारों साल पहले खत्म हो चुकी प्रजातियों को वापस लाना सही है? क्या यह प्रकृति के संतुलन के साथ एक गंभीर छेड़छाड़ नहीं है? डी-एक्सटिंक्शन यानी गैर-विलुप्तीकरण एक नया कॉन्सेप्ट है, जो पिछले कुछ सालों में तेजी से उभरा है। अब तक यह केवल किताबों, फिल्मों या रिसर्च पेपर्स में सीमित था, लेकिन अब यह प्रयोगशालाओं और असली जीवन में उतरने लगा है। कोलोसल कंपनी का कहना है कि यह प्रयोग इंसानी गलतियों का प्रायश्चित है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर हमसे गलती से किसी प्रजाति का अंत हुआ है, तो हमें उसे वापस लाने की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। लेकिन यह सोच जितनी आदर्शवादी लगती है, उतनी ही खतरनाक भी हो सकती है।

कोलोसल बायोसाइंसेस इस समय केवल भेड़ियों पर काम नहीं कर रही, बल्कि उनकी निगाह डोडो पक्षी, ऊनी मैमथ और तस्मानियाई टाइगर जैसी प्रजातियों पर भी है। डोडो पक्षी, जो सदियों पहले खत्म हो चुका है, उसके माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए को साल 2002 में संरक्षित किया गया था। इस डीएनए की तुलना निकोबारी कबूतर से की गई, जो डोडो का करीबी रिश्तेदार है। अब वैज्ञानिक इन दोनों डीएनए को मिलाकर डोडो को वापस लाने की दिशा में काम कर रहे हैं। ऊनी मैमथ के डीएनए के साथ भी ऐसा ही प्रयोग किया जा रहा है, जिसमें हाथियों की मदद से भ्रूण विकसित करने की योजना है।

हालांकि, विशेषज्ञ इस पूरी प्रक्रिया को लेकर चिंतित हैं। विज्ञान के क्षेत्र में यह जितनी बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है, उससे कई गुना ज्यादा नैतिक और पारिस्थितिक खतरे इसके साथ जुड़े हुए हैं। सबसे पहले तो क्लोनिंग की प्रक्रिया खुद अपने आप में जटिल और जोखिम भरी होती है। क्लोन किए गए जानवरों में समय से पहले मौत, विकृति और अन्य जैविक समस्याएं सामान्य मानी जाती हैं। ऐसे में हजारों साल पहले समाप्त हो चुकी प्रजातियों को वापस लाने की कोशिश और भी जटिल हो जाती है। यह कहना मुश्किल है कि ये जानवर वर्तमान पर्यावरण में खुद को कैसे ढालेंगे।

दूसरा बड़ा खतरा पारिस्थितिक तंत्र से जुड़ा है। वैज्ञानिक फिलॉसॉफर हैदर ब्राउनिंग के मुताबिक, अगर ये प्राचीन जानवर नए माहौल में आक्रामक हो गए तो वे मौजूदा प्रजातियों पर हमला कर सकते हैं। इससे पारिस्थितिक असंतुलन पैदा होगा और संभव है कि दोनों ही प्रजातियां समाप्त हो जाएं। इसके अलावा, इन जानवरों को जब सरोगेट मदर यानी किसी दूसरी प्रजाति की मां की कोख में विकसित किया जाता है, तो मां की जान पर भी खतरा बन सकता है। उदाहरण के तौर पर, भेड़ियों के लिए कुत्तों को सरोगेट बनाया गया, लेकिन डायर वुल्फ का वजन और आकार सामान्य वुल्फ से कहीं ज्यादा होता है। ऐसे में सरोगेट डॉग को सीज़ेरियन डिलीवरी करानी पड़ी और उसमें जान का खतरा भी बना रहा।

यह भी जरूरी नहीं कि जन्म देने वाली मां नए शिशु को अपनाए। चूंकि वो शिशु उसकी प्रजाति का नहीं होता, उसकी गंध और व्यवहार अलग होते हैं, इसलिए कुत्ते अक्सर उन्हें ठुकरा देते हैं। ऐसी स्थिति में शिशु को कृत्रिम तरीके से जीवित रखना होता है, जो न केवल महंगा बल्कि अस्थिर भी होता है। अगर इस प्रक्रिया में एक भी कड़ी कमजोर पड़ती है तो पूरा डी-एक्सटिंक्शन प्रयास विफल हो सकता है।

सोशल मीडिया पर टाइम मैगजीन के कवर पर तीनों पपीज की तस्वीर आते ही बहस छिड़ गई है। कुछ लोग इसे विज्ञान की जीत मान रहे हैं तो कुछ इसे प्रकृति के नियमों से खिलवाड़ बता रहे हैं। कई विशेषज्ञों का मानना है कि हमें विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवित करने पर फोकस करने के बजाय मौजूदा संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने की दिशा में काम करना चाहिए। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (WWF) के अनुसार, 1970 से 2014 के बीच दुनिया की 60% से ज्यादा स्तनधारी, पक्षी, मछली और सरीसृप प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं। वहीं, यूएन की एक रिपोर्ट कहती है कि हर दिन लगभग 150 प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। ऐसे में वैज्ञानिक संसाधनों और धन का इस्तेमाल उन प्रजातियों को बचाने में करना ज्यादा व्यावहारिक और जरूरी है, जो अभी अस्तित्व में हैं लेकिन खतरे में हैं।

इस बहस का एक और पहलू है जनता और नीति-निर्माताओं का आकर्षण। जब कोई कंपनी दावा करती है कि उसने भूतकाल की प्रजाति को वापस ला दिया है, तो यह खबर तुरंत सुर्खियों में आ जाती है। यह निवेशकों का ध्यान खींचती है, फंडिंग मिलती है और सरकारें भी समर्थन देने लगती हैं। लेकिन इसमें यह नहीं सोचा जाता कि लंबे समय में इसका असर क्या होगा। कहीं ऐसा न हो कि विज्ञान की इस छलांग के पीछे पर्यावरण की स्थिरता, जैव विविधता और नैतिकता के सवालों को दरकिनार कर दिया जाए।

बहरहाल, यह तय करना हम सभी की जिम्मेदारी है कि डी-एक्सटिंक्शन जैसे प्रयोगों को हम कहां तक स्वीकार करते हैं। क्या यह सच में एक भूल का प्रायश्चित है या फिर एक नई भूल की शुरुआत? क्या विज्ञान का हर संभव प्रयोग करना जरूरी है, या फिर उसे विवेक और संवेदनशीलता के साथ करना चाहिए? कोलोसल बायोसाइंसेस ने जो किया है, वो विज्ञान की क्षमताओं का प्रमाण है, लेकिन यह प्रमाण तभी सार्थक होगा जब इसके परिणाम भी मानवता और प्रकृति के हित में हों। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो शायद भविष्य में हम उन प्रजातियों को भी खो देंगे, जो आज हमारे साथ हैं।

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