
ए अहमद सौदागर
लखनऊ। लोकसभा चुनाव के पहले से ही सरकारी अमले और मीडिया ने मोदी जी के पक्ष में हवा बनानी शुरू कर दी थी।
सरकार ने यह तय मान लिया था कि मोदी जी प्रचंड बहुमत से जीत कर तीसरी बार सरकार बनाएंगे।
सरकार की इस धारणा को शंकराचार्य ने मतदाताओं पर थोपने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया और ओपिनियन पोल से लेकर एक्जिट पोल तक टीवी चैनलों पर शोर-शराबा और अखबारों में सत्ता पक्ष के कसीदे जिस तरह लिखे गए असल परिणाम उसके उलट आया।
यह सही है कि विपक्ष सरकार बनाने के आंकड़ों से बहुत पीछे रह गया और लोकसभा चुनाव की जीत में मोदी की हार छिपी हुई है।
एनडीए के घटक दल के नेता इसे बखूबी समझ रहे हैं।
दस साल के कार्यकाल में जनता को रिझाने वाला एक भी कार्य नजर न आते देख प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बार फिर श्रीराम मंदिर के नाम पर चुनाव की रणनीति तैयार की थी।
उन्होंने अधबने मंदिर में आनन-फानन में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम संपन्न कराया।
सनातन धर्म गुरु शंकराचार्य तक को अपमानित करने में नहीं हिचके।
यहां से उनकी शिकस्त की राह पस्त होने लगी। अंधभक्तों के अलावा सनातन धर्म के अन्य अनुयाई को शंकराचार्य को अपमानित किया जाना बुरा लगा और उन्होंने मन ही मन मोदी जी के विकल्प को तलाश शुरू कर दी।
अयोध्या में भाजपा प्रत्याशी की करारी हार इसका उदाहरण है। अहंकार के खिलाफ सुलगती चिंगारी को राहुल गांधी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे, ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव के न सिर्फ भांपा बल्कि हवा देनी शुरू कर दी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके साथी नेता अंधभक्तों को ताली बजाते देख जीत के मुगालते में रहे, जबकि उनके खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा था। बनारस की सीट पर शुरुआती दौर में प्रधानमंत्री मोदी को कांग्रेस प्रत्याशी पिछाड़ा और तमाम जद्दोजहद के बाद पौने दो लाख से कम वोटों से जीत उनके कद के मुताबिक हार ही मानी जायेगी।
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भाजपा का बहुमत के आंकड़ों से दूर रहना इस बात को देव तक है कि देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को विपक्ष में बैठने की दिशा तय की है।
घटक दलों के सहयोग से यानी एनडीए को बहुमत मिला है इससे स्पष्ट है कि देश की जनता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी अन्य को देखना चाहती है।
दस साल में किए गए क्रिया कलापों को छुपाने के लिए नरेंद्र मोदी यदि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन होते हैं तो सरकार को आयु अल्प कालिक होगी।