ब्रांड मोदी हुआ खत्म : प्रधान सेवक से अवतरित होने तक का तिलस्म टूटा

ब्रांड मोदी हुआ खत्म : प्रधान सेवक से अवतरित होने तक का तिलस्म टूटा
राजेश श्रीवास्तव
नई दिल्ली । पिछले दस सालों से जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम जनमानस के पटल पर अपनी छवि अंकित कर दी थी उसको मिटाने के लिए 4 जून की तारीख लंबे समय तक याद रखी जायेगी। अमूमन किसी राजनेता की छवि को बट्टा लगाने का काम विरोधी करते हैं लेकिन जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आकर केंद्र की राजनीति में कदम रखा था और उसके बाद से लेकर अब तक का उनका सफर किसी रोमांचक कहानी से कम नहीं है। आज भी आम जनमानस के पटल पर वह शब्द अंकित हैं जब प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी में चुनाव के नामांकन के लिए आने पर कहा था कि मां, गंगा ने मुझे बुलाया है तब से लेकर अब तक के तमाम मौके आये और नरेंद्र मोदी अपने आपको गढ़ते चले गये। उनका औरा इतना बड़ा होता गया कि लोग उसमें समाते चले गये। 2०14 का चुनाव फिर 2०19 का चुनाव । इन दोनों चुनावों को जीतने के बाद खुद पीएम मोदी को अपने से बड़ा अपना नाम लगने लगा था।
शायद यही वजह थी कि जब 2०24 के चुनावी समर में वह उतरे तब उन्होंने अपने किसी प्रत्याशी की तरफ ध्यान नहीं दिया । न टिकटों के बंटवारे पर ध्यान दिया न उसकी छवि पर और तो और उन्होंने अपने घोषणा पत्र पर भी ध्यान नहीं दिया। उनको लगा कि लोग उनके भाषण, उनके शासन और उनके मुफ्त राशन पर इतना फिदा है कि उन्होंने देश की 14० करोड़ आबादी को मोदी की गारंटी दे डाली और कहा कि आप प्रत्याशी को मत देखो। सिर्फ मोदी की गारंटी देखो। आपको सिर्फ मोदी को देखना है और कमल को ही पहचाना है। इसी अतिरेक में आकर उन्होंने 4०० पार का नारा दे डाला। लेकिन उसका हश्र यह हुआ कि दूसरे की कौन कहे Lुद उनकी ही सीट डूबते-उतराते लगभग डेढ़ लाख के वोटों से जीती गयी। कहां तो यह दावा किया गया था कि प्रधानमंत्री मोदी की सीट पर अंतर सात लाख के आसपास होगा। लेकिन एक मामूली प्रत्याशी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे अजय राय ने उन्हें कई घंटे छकाये रखा ।
पीएम मोदी को लगने लगा कि आस्था की अफीम में लोग डूबे रहेंगे और आंख बंद कर ब्रांड मोदी को वोट देंगे। उनकी उनींदी आाखों में सपने बोये उनकी वाहवाही में जुटी मीडिया ने। जो विज्ञापनों की चकाचौंध में डूब कर यह भी न देख सकी कि दस साल के कार्यकाल पर जनता मुहर लगाने जा रही है। मीडिया इतना सरपरस्ती में जुट गया कि उन्हें एग्जिट पोल के सहारे 400 सीटों का ख्चाब भी पका कर दे दिया। उनके इसी ख्वाब में फंसकर आम जनता के एक दिन में 45 लाख करोड़ रुपये श्योर बाजार में डूब गये।
जिस उत्तर प्रदेश के सहारे वह पूरे देश को संदेश दे रहे थ्ो और नारा गूंज रहा था कि जो राम को लाये हैं हम उनको लायेंगे, उसी राम की नगरी ही नहीं बल्कि उसके आसपास की भी सभी सीटें भाजपा गंवा बैठी। खुद अयोध्या से भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह अपनी सीट गंवा बैठे। बगल की बाराबंकी भी नहीं बची। राजधानी की परंपरागत सीट राजनाथ सिंह भी एक डमी कैंडिडेट समझे जा रहे रविदास मेहरोत्रा से मात्र 75 हजार वोट से जीत सके।

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यूपी में योगी-मोदी की डबल इंजन की सरकार के दावे की हवा भी खूब निकाली गयी। उत्तर प्रदेश में भाजपा को निराशा का सामना करना पड़ गया। सपा ने फतह हासिल कर भाजपा नेताओं के दावों की हवा निकाल दी। माफिया पर सख्ती और बुलडोजर पॉलिसी को जनता ने सिरे से नकार दिया।
माफिया पर सख्त कार्रवाई करने और उसका चुनाव में जमकर प्रचार करने के बावजूद भाजपा को निराशा का सामना करना पड़ गया। जिन सीटों पर माफिया का दशकों से प्रभाव रहा, वहां पर सपा ने फतह हासिल कर भाजपा नेताओं के दावों की हवा निकाल दी। चुनाव प्रचार के दौरान माफिया पर सख्ती और बुलडोजर पॉलिसी को जनता ने सिरे से नकार दिया।
बता दें कि पूर्वांचल में माफिया मुख्तार अंसारी और उनके परिवार का असर गाजीपुर और आसपास की सीटों पर दशकों से रहा है। गाजीपुर में मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी ने दोबारा चुनाव जीत लिया है। इससे संदेश गया कि मुख्तार की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मृत्यु को लेकर जनता के मन में आक्रोश है। गाजीपुर की नजदीकी घोसी सीट पर भी सपा के राजीव राय ने जीत हासिल की है।

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वहीं, इलाहाबाद को माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ के खौफ से मुक्त कराने की राज्य सरकार की कवायद भी चुनाव में रंग नहीं दिखा सकी। यह सीट कांग्रेस के खाते में चली गयी, जहां उज्जवल रमण सिह ने चुनाव जीता है। कानपुर में दुर्दांत अपराधी विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बावजूद भाजपा को जीत के लिए खासा संघर्ष करना पड़ा। कानपुर में रमेश अवस्थी को बेहद कम अंतर से जीत हासिल हुई है।
इस जनादेश के मायने पीएम मोदी और पूरी भजपा को समझना पड़ेगा क्योंकि अब मोदी मैजिक खत्म होता दिख रहा है। एनडीए को 400 पार और पार्टी को 370 पार ले जाने की भाजपा की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई। जनादेश ने साफ कर दिया कि सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे के भरोसे रहने से भाजपा का काम नहीं चलेगा। उसके निर्वाचित सांसदों और राज्य के नेतृत्व को भी अच्छा प्रदर्शन करना होगा।
जनादेश बताता है कि गठबंधन की अहमियत का दौर 10 साल बाद फिर लौट आया है। भाजपा के पास अकेले के बूते अब वह आंकड़ा नहीं है, जिसके सहारे वह अपना एजेंडा आगे बढ़ा सके। यह भाजपा की स्पष्ट जीत नहीं है। यह एनडीए की जीत ज्यादा है। आंकड़ों की दोपहर तक की स्थिति को देखें तो यह माना जा सकता है कि पूरे पांच साल भाजपा गठबंधन के सहयोगियों खासकर जदयू और तेदेपा के भरोसे रहेगी। इन दोनों दलों के बारे में यह कहना मुश्किल है कि ये भाजपा के साथ पूरे पांच साल बने रहेंगे या नहीं। राज्य के लिए विशेष पैकेज और केंद्र और प्रदेश की सत्ता में भागीदारी के मुद्दे पर इनके भाजपा से मतभेद के आसार ज्यादा रहेंगे। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू, दोनों ही अतीत में एनडीए से अलग हो चुके हैं।

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इंडी गठबंधन की बात करें तो यह उसकी स्पष्ट जीत कम और बड़ी कामयाबी ज्यादा है। यह गठबंधन 200का आंकड़ा आसानी से पार कर रहा है। इसके ये सीधे तौर पर मायने हैं कि अगले पांच साल विपक्ष केंद्र की राजनीति में मजबूती से बना रहेगा। क्षेत्रीय दल देश की राजनीति में अपरिहार्य बने रहेंगे। यह मुकाबला 2014 और 2019 में मोदी की लोकप्रियता बनाम 2024 में मोदी की लोकप्रियता का रहा।
भाजपा ने नरेंद्र मोदी के चेहरे पर पहली बार 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा था। पहली बार में ही वह अकेले के बूते 282 सीटों पर पहुंची। 2०19 में भाजपा ने 303 सीटें जीतीं। इस बार भाजपा की अपनी सीटें 240 के आसपास हैं। यानी वह 2014 से 40 सीटें और 2019 से 60 सीटें पीछे है।
भाजपा को भले ही पांच साल तक आसानी से सरकार चला लेने का भरोसा हो, लेकिन उसकी निर्भरता जदयू और तेदेपा जैसे दलों पर रहेगी। भाजपा ने 10 साल स्पष्ट बहुमत से सरकार चलाई, लेकिन अब गठबंधन सरकार का दौर लौटेगा।
डॉ. मनमोहन सिह के समय कांग्रेस ने इससे भी कम सीटें लाकर गठबंधन की सरकार चलाई। अटल-आडवाणी भी भाजपा को अधिकतम 182 सीटों पर पहुंचा सके थे, लेकिन सरकार चला पाए। भाजपा की 2024 की स्थिति इससे बेहतर है। नतीजे 1991 के लोकसभा चुनाव जैसे हैं। तब कांग्रेस ने 232 सीटें जीतीं और पीवी नरसिहा राव प्रधानमंत्री बने। उन्होंने पूरे पांच साल अन्य दलों के समर्थन से सरकार चलाई। इस बार भाजपा भी 240 के आसपास है। गठबंधन अब उसकी मजबूरी है।

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