दो टूक : क्या जनता की नब्ज को भी नहीं पकड़ पा रहा है विपक्ष? 

राजेश श्रीवास्तव

इन दिनों पूरे देश में सिर्फ एक माहौल है राम मंदिर का। एक पर्व है राम लला की प्राण प्रतिष्ठा का । सब भाग रहे हैं अयोध्या की ओर। हर एक बस बेताब है अयोध्या की रज को छू लेने को। अपने आराध्या राम लला को एक बार बस निहार लेने को। मानो हर दिल राम मय हो गया हो। हर घर में मानो वह मौका आने वाला है जब अयोध्या में राम आ रहे हैं। तो ऐसे में राजनीतिक दल कैसे पीछे रहें। एक तरफ वो दल है जो सरकार में है, वह इस मौके को कैसे छोड़ सकता है क्योंकि उसके तो मूल में राम हैं। हिंदुत्व उसका एजेंडा हैं। उसी को लेकर उसकी सियासत है। वह मानो इस जन आस्था को भुनाने को बेताब है क्योंकि यह आस्था जितना सैलाब लेगी उतना ही उसका विस्तार रूपी प्रसाद 2024 के चुनावों में मिलेगा। लेकिन इसका परिणाम क्या दूसरे राजनीतिक दल यानि कि विपक्ष क्यों नहीं समझ पा रहा है। पिछले 500 सालों से इस मंदिर को लेकर सियासत जारी है। तो विपक्ष अभी भी इस जद्दोजहद में फंसा है कि वह इसके साथ खड़ा हो या इसके विरोध में । वह हिंदुओं का वोट तो पाना चाहता है लेकिन मुसलमानों के खोना नहीं चाहता। वह हिंदुओं में अगड़े और पिछड़ों को बांटना चाहता है। उसे लगता है कि राम अगड़ों के हैं पिछड़ों के नहीं। वह अभी भी राम को काल्पनिक ही मान रहा है। प्राण प्रतिष्ठा से पहले हो रही बयानबाजी के पीछे की सियासत क्या है? क्या विपक्ष जनभावना को नहीं समझ पा रहा है? शायद यही वजह है कि कुछ नेता बौखलाहट में अशोभनीय टिप्पणियां कर रहे हैं। इस तरह का टिप्पणियां निदनीय हैं। देश की सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई है, लेकिन वह धार्मिक उन्माद में नहीं बदल जाए, हमें इसका ध्यान जरूर रखना चाहिए।

इस तरह के बयान कोई पहली बार नहीं आए हैं। पहले भी इस तरह से बयान आते रहे हैं। किसी भी महापुरुष के खानपान पर टिप्पणी करना कहीं से उचित नहीं है। रामराज्य की कल्पना में ही निहित है कि राम आलोचनाओं से नहीं डरते हैं। राम के नाम पर अगर कुछ बोल दिया तो उससे राम छोटे हो गए, मैं इससे सहमत नहीं हूं। राम को लेकर राजनीति उस दिन शुरू हुई थी, जब भाजपा ने 1988 में राम मंदिर को अपने एजेंडे में शामिल किया। 2024 के चुनाव नजदीक हैं, उससे पहले जिस तरह से राम मंदिर से जुड़ा आयोजन हो रहा है, उसका लाभ भाजपा को जरूर होगा। हमारे देश में कबीर के भी राम हैं और तुलसी के भी राम हैं। कबीर के राम निर्गुण हैं, वहीं तुलसी के राम सगुण हैं। यह बताता है कि हमारे देश में आज से नहीं, बल्कि जब से यह अस्तिव में आया, तब से यह ऐसा ही है। धर्म और कर्म का जो समन्वय है, वो नहीं भूलना चाहिए। यह देश इसलिए महान रहा है कि एक धर्म में ही नहीं, एक पंत में भी कई विरोधी स्वर रहे हैं, लेकिन इन भावनाओं का कारण क्या है। हमारे देश में जो कुछ भी घटित होता है, उसे गहराई से समझने और उस पर मनन करने, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले लोगों की कमी हो गई है। जब सोमनाथ मंदिर का निर्माण हो रहा था, तब उसके बारे में लिखा गया कि सोमनाथ के पतन के साथ हमारे देश का पतन आरंभ हो गया था। जो लोग इस तरह की सोच वाले थे, उन्होंने जल्द से जल्द वहां पर ज्योतिîलग की स्थापना की। भारत को धर्म से काट देंगे तो कुछ बचेगा ही नहीं। राम मंदिर सांस्कृतिक भारत के पुनर्उद्भव का माध्यम है। हमारे यहां धर्म का अर्थ कर्म से जुड़ा है। हमारे यहां धर्म इसलिए रहा है कि आप कर्म तो करें, लेकिन कर्म के बंधनों में नहीं बधें रहें। राजनीति तभी सही होगी, जब उस धर्म की सूक्ष्मता को समझेगी।

इसे सीधी तरह से राजनीतिक मुद्दे के तौर पर देखना चाहिए। इस तरह के बयान धार्मिक मुद्दे से ज्यादा राजनीतिक हैं। बड़ी विपक्षी पार्टियों के नेताओं के इस तरह के बयान आपको देखने को नहीं मिलेंगे। इस वक्त देश की राजनीति में जो भी नेता हिन्दू वोटों को अपने साथ रखना चाहता है, वो इस तरह के बयानों से बचेगा। क्या इस्लामिक देश बदले नहीं है? वे तेजी से बदले हैं और बदल रहे हैं। दूसरी तरफ वेटिकन सिर्फ टिकटों से 800 बिलियन डॉलर कमा लेता है। इसी तरह इस मंदिर के बनने के बाद अर्थव्यवस्था पर भी बड़ा असर पड़ेगा। जिस तरह से बड़े-बड़े होटल्स की चेन ने अपनी रुचि दिखाई है उससे यह पता भी चलता है। कहा जा रहा है कि वहां पर तीन लाख लोग आएंगे। जब इतने लोग आएंगे तो क्या वहां अस्पताल नहीं बनेंगे? राजनीतिक मजबूरियां अलग हैं, लेकिन जहां तक आस्था की बात है तो चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, सभी वहां पर दर्शन के लिए जाएंगे। विपक्षी दलों को भी देश की जनभावनाओं को समझना होगा कि देश क्या चाहता है। सियासत अपनी जगह है लेकिन कोई भी धर्म का मानने वाला हो वह राम का विरोधी नहीं हो सकता। कुछ चरमपंथियों की बात छोड़ दें तो राम सबके हैं। ऐसे में विपक्ष को चाहिए कि सियासत का केंद्र राम विरोधी बयान को छोड़कर अन्य मुद्दों पर राजनीति करे अन्यथा 2024 में कोई गठबंधन उसे सत्ता की ओर नहीं बल्कि उस दिशा में ले जायेगा जहां आगे आने वाले अगले पांच सालों तक उसे अपनी पार्टी का जनाधार खड़ा करने में भी फिर से जमीन पर चलना पड़ेगा। पता नहीं क्यों विपक्ष देश की जनता का मूड क्यों नहीं भांप पा रहा है, क्या उसे जनता की नब्ज पकड़ने का हुनर भी मालुम नहीं है।

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