हिंदी रंगमंच पर तनिक ख्याली पुलाव!

के. विक्रम राव
के. विक्रम राव

अब मुंबई, अहमदाबाद, बड़ौदा और हैदराबाद में थ्येटर पर कुछ मेरी अपनी की गई रिपोर्टिंग का संदर्भ भी दे दूं। यह आवश्यक है ताकि सनद रहे। साक्ष्य और सबूत प्रस्तुत कर दूं कि आखिर एक मुझ जैसे बुद्धिकर्मी, श्रमजीवी की थ्येटर पर टिप्पणी हेतु अर्हता क्या है ? बात सितंबर 1958 की है लखनऊ विश्वविद्यालय का छात्र यूनियन की टीम प्रत्येक वर्ष नैनीताल शरदोत्सव नाट्य समारोह में शिरकत करती थी। उस वर्ष (नजरबाग में मेरी पड़ोसी) प्रोफ़ेसर केसी श्रीवास्तव अपनी टीम को नहीं ले जा पाये। यूनियन में हमारी समाजवादी युवक सभा के प्रत्याशी स्व विनयचन्द्र मिश्रा अध्यक्ष चुने गए थे। (वे भारतीय बार काउंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा मुलायम सिंह सरकार के महाधिवक्ता भी रहे।) मिश्रजी ने मुझे नैनीताल नाटक प्रतियोगिता में टीम ले जाने का निर्देश दिया। हमारी टीम को सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार मिला। तभी से नीरस राजनीति शास्त्र का छात्र, मैं सरसता की ओर आकृष्ट हुआ। लखनऊ आंध्र एसोसिएशन के उत्सवों पर हमारी प्रस्तुतियां होती रहीं।

मगर रंगमंच का विशद ज्ञान बम्बई (मुंबई) में मिला, जब अक्तूबर 1962 से 1968 तक वहां “टाइम्स ऑफ इंडिया” में रहा। फिर इसी दैनिक के संवाददाता बनकर अहमदाबाद, बड़ौदा और हैदराबाद में गुजराती तथा तेलुगु मंच की जानकारी पायी। केवल समीक्षा और लेखन की। पत्रकार को अभिनय कहां आ पाता हैं ?

मुंबई में रंगमंच तो अद्भुत शिखर पर हैं। वहां भेंट हुई थी सत्यदेव दुबे से। वह दौर उनका कशमकश और उथल पुथल वाला था। शुरुआत थी। तब तक पद्म भूषण और नाटक अकादमी पुरस्कार उन्हे मिला नहीं था। दुबे ने ज्यां पाल सार्त्र की रचना “नो एग्जिट” (बंद दरवाजे) का मंथन किया था। उसकी समीक्षा मैंने लिखी थी। “टाइम्स ऑफ इंडिया” में छपी। चर्चित हुई। दुबे जी को पसंद भी आई। यह करीब अक्टूबर 1966 की बात है जब मैं एक रिपोर्टर था। फिर हमारी हिंदी सहयोगी पत्रिका “धर्मयंग” के संपादक डॉ धर्मवीर भारती के “अंधायुग” के दुबे जी ने मंचन किया। बड़ी ख्याति पाई। उसी कालखंड में इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास, फणीश्वरनाथ रेणु आदि से भी मेरा साबिका पड़ा। कृपा थी हमारे सीनियर साथी मोहम्मद शमीम (अमीनाबाद, लखनऊ) की जिन्होंने मुझे “फिल्मफेयर” में लिखना सिखाया। उन्हीं के मार्फत फिल्म और थ्येटर के शीर्ष सितारों से निजी भेंट भी होती रही। तुलनात्मक रूप से मैंने पाया कि मेरी मातृभाषा तेलुगु को थ्येटर में प्राप्त संपन्नता का बुनियादी कारण यह रहा कि हैदराबाद तथा चेन्नई के आंध्र फिल्मीजनों ने अपने रंगमंच वालों की खूब वित्तीय मदद की। अतः वे विपन्न नहीं रहे।

बस यही त्रासदी है लखनऊ में निमंत्रण-कार्ड वाले अर्थशास्त्र के कारण। केवल इसी पर थ्येटर कैसे पल सकता है ? यदाकदा चंदा और अनुदान मिले तो दीगर बात है। सभागार का भाड़ा कैसे निकले ? हिंदी में नाटय साहित्य विपुल है। मगर सुनियोजित रीति से मंचन प्रोत्साहित नहीं हो पाया। विडंबना रही कि आर्यावर्त (उत्तर दिशा) में ही भरतमुनि द्वारा नाट्यशास्त्र रचित हुआ। फिर विंध्य के दक्षिण में व्यापा। पहला नाटक “लक्ष्मी स्वयंवर” इंद्र की सभा (स्वर्ग) में मंचित हुआ था। नाट्यशास्त्र को पंचम वेद में कहा गया है। प्रथम वेद (ब्रह्मा द्वारा सृजित) ऋग्वेद से शब्द लिए गए, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अभिव्यक्ति तथा अथर्वेद से भावनाएं आदि। तो इस पांचवें वेद के प्रति पर्याप्त ध्यान देने और प्रसार करने का संकल्प ही आज के दिन नाट्यशास्त्रियों को लेना होगा।

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