भारतीय संस्कृति के अनुरूप रहे सोशल मीडिया

डॉ दिलीप अग्निहोत्री


भारत में संचार माध्यमों का सर्वप्रथम अविष्कार हुआ था। देवऋषि नारदजी को आद्य पत्रकार माना जाता है। उन्होने जो सूत्र निर्धारित किए वह आज भी प्रासंगिक हैं। इसके अंतर्गत सोशल मीडिया भी शामिल है। लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ पूर्वी भाग द्वारा सोशल मीडिया मीट का आयोजन किया गया।इसमें मुख्य वक्ता संघ के सह क्षेत्र प्रचार प्रमुख डॉ मनोज कांत थे।उन्होने कहा कि मीडिया या सोशल मीडिया को लेकर अनेक प्रश्न उभरते हैं। इसके कई प्रकार हैं। वर्तमान समय में इसका विस्तृत स्वरूप है। न्यूज चैनल से  आगे बढ़कर अब सोशल मीडिया भी संचार माध्यमो में जुड़ गया हैं। इसे लेकर व्यापक स्वरूप दिखाई देता हैं।

इस पर विमर्श की आवश्यकता हैं। तथ्य भी सत्य पर आधारित होना चाहिए। हम मानुष हैं। इसलिए तथ्यों में मानव कल्याण का भाव भी होना चाहिए। भारतीय संस्कृति में आदर्श जीवन मूल्यों को बहुत महत्त्व दिया गया। तथ्यों में जीवन मूल्यों की झलक भी होनी चाहिए। माँ और मदर शब्द भावना के आधर पर अलग है। अनुवाद की द्रष्टि से यह सही है। लेकिन इन शब्दों में अलग अलग संस्कृति का बोध है। माँ शब्द में भारतीय जीवन मूल्यों का बोध है। इसी प्रकार नेशन और राष्ट्र में अन्तर है। भारत के राष्ट्र में शास्वत संस्कृति का समावेश है।

योगी की सार्थक उद्योग नीति

मनोज कांत ने कहा कि न्युज और व्यूज पर विमर्श आवश्यक है। उन्होने उदाहरण एक न्युज का उदाहरण दिया। न्युज यह थी कि एक बालक को हांथ में रक्षा सूत्र कलावा बांधने के कारण फुटबाल खेलने से रोक दिया गया। बालक ने कलावा हटाने से मना कर दिया। यह न्युज है। इसका व्यूज यह कि एक तरफ संकुचित मत के लोग है। वह अपने विचार दूसरों पर थोपना चाहते है। दूसरी तरफ प्रलोभन को ठुकरा कर अपनी अस्था पर विश्वास पर रखने वाले लोग भी हैं। संविधान में अधिकारों के साथ कर्तव्यों का भी उल्लेख है। हम सभी लोगों को अधिकारों के साथ कर्तव्य के प्रति भी सजग रहना चाहिए। इससे श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता हैं। मीडिया को इसमें भूमिका निभानी चाहिए।

मीडिया और समाज, मीडिया और राष्ट्र आदि की अवधारणा पर विचार करना चाहिए। फिल्म मनोरंजन का माध्यम है। लेकिन इसका भी विकृत रूप दिखाई दे रहा है।भारतीय संस्कृति के प्रतीकों अमर्यादित रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। सबरी माला मन्दिर पर निर्णय हुआ। लेकिन इसमें पीड़ित का कोई पता नहीं है। जिन्होंने यह मुद्दा उठाया उन्हें यहां की पूजा से कोई मतलब ही नहीं था। मीडिया की भूमिका शिक्षण, भारतीय जीवन मूल्यों, राष्ट्रीय चिंतन से प्रेरित होनी चाहिए। इससे समाज राष्ट्र और मानवता का कल्याण होगा। साँस्कृतिक शब्दावली होती है। उसका ज्ञान होना चाहिए। कार्यक्रम का संचालन बाल भाष्कर ने किया। दूसरे सत्र में वरिष्ठ पत्रकार हर्ष वर्धन त्रिपाठी और शिल्पी सेन का व्याख्यान हुआ।

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