- लोभ का प्रतीक था रावण
- अहंकार-कुंभकर्ण,काम-मेघनाद
- चाल रहा हर विभाग को ऊपरी आमदनी
- लोभ पाप का मूल
लोभ पाप की जड़ है, ऐसा मेरे पितामह कहते थे। लोभ की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसका पेट कभी नहीं भरता। ‘जि VVमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’ ज्यों ज्यों लाभ मिलता जाता है,लोभ बढ़ता जाता हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसी दास ने इसे रावण की संज्ञा दी। अपने ही भाई कुबेर पर चढ़ाई पर उनकी सोने की लंका और पुष्पक विमान छीन लाया। यह कहते हुए कि ‘भैया आप क्या करोगे? इसे मेरे पास रहना चाहिए।’ समाज में फैली घूस की परंपरा ‘लोभ’ का ही परिणाम है। जब कर्मचारी या अधिकारी को अपना वेतन पाकर संतुष्टि नहीं होती वह ऊपरी रकम या गिफ्ट की चाहत रखता है। इस तरह पतन के गर्त में गिरता जाता है। इसका एक स्वरुप कमीशन खोरी है।
“कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहिं प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहिं मोहिं राम।।” गोस्वामी जी ने इसका भी उपयोग कर लिया। कहते है़ मुझे राम कैसे प्यारे लगें? जैसे कामी को नारि प्रिय होती है। फिर बोले नहीं नहीं… काम वासना शांत होने पर नारि प्रिय नहीं लगती… तो यह रूपक बन नही रहा। तब लिखा ‘लोभिहिं प्रिय जिमि दाम।’ इस बार बाबा तुलसी संतुष्ट थे।
लोभी को जैसे दाम- धन प्यारा होता है।अब सही है। धन कितना ही क्यों न मिल जाय व्यक्ति का पेट नहीं भरता। राम से लोभ की तरह प्रेम हो जाय… जितना हम करे, इच्छा बढ़ती ही जाय। भगवान के दर्शन से कभी संतुष्टि न हो । ऐसे ही रघुनायक प्रिय लगने चाहिए। कुंभकर्ण अहंकार का प्रतीक है,अहंकार टूट सकता हे। मेघनाद काम का प्रतीक हे,काम जीता जा सकता है। रावण को हराना कठिन है। यह लोभ की तरह अजेय है। इसको हराने मे राम को पूरी ताकत लगानी पड़ी। देश में कोढ़ की तरह बढ़ती घूस,कमीशन और रिश्वत की बीमारी नष्ट हुए बिना रावण नहीं मरेगा,”रामराज्य” कायम नहीं होगा।