भारत में लोकतंत्र की सुदृढ़ता व पतनोन्मुख राजनीतिक स्थिति

कर्नल आदि शंकर मिश्र
 कर्नल आदि शंकर मिश्र,

लखनऊ। इंटरनेट के इस आधुनिक युग में विश्व एक है, यह निर्विवाद रूप से सर्वमान्य सत्य है। विश्व गुरु भारत के जनमानस के द्वारा भी यही कहा जाता है। साथ ही यह भी कि विश्व को एक बनाना ही भारत की वैश्विक नीति का उद्देश्य भी है। परंतु जब आंतरिक राजनीति की बात आती है तो महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, बाबा साहेब अंबेडकर, वीर सावरकर, गुरु गोलवलकर आदि से लेकर राजीव गाँधी, अटल बिहारी बाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह, नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी तक की बात बात पर एक नहीं अनेक लोग एक साथ भी और एक एक कर सारी दुनिया में आलोचना करते रहते हैं, जो लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा हो सकती है।

यह भी निश्चित है कि कमोबेस इन सभी नेताओं ने देश के हित में सर्वथा विकास के अनेकों कदम उठाये हैं और कार्य किए हैं। यही वजह है कि आज जिस देश में सुई नहीं बनती थी अब तरह तरह के हवाई जहाज भी बनते हैं, अंतरिक्ष विज्ञान और विकास में, रक्षा क्षेत्र में, तकनीकी विकास में, उद्यमिता के क्षेत्र में भारत किसी देश से पीछे नहीं है। परंतु तब क्या भारत की बुराई होती है, नहीं, यह तो राजनीतिक दलों की व उनकी नीतियों की आलोचना है।जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिये आवश्यक भी है और नीति संगत भी है। लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए प्रेम और त्याग की आवश्यकता होती है परंतु वर्तमान परिदृश्य में इनका अभाव होता जा रहा है। सहन शीलता लुप्त प्राय होती जा रही है। वस्तुस्थिति को तोड़ मरोड़ कर परोसा जा रहा है और वास्तविकता को नकारा जा रहा है, जो न उचित कहा जा सकता है और न ही स्वस्थ परंपरा ही कही जा सकती है।

मेरा मानना है कि पक्ष व विपक्ष दोनों को सबसे पहले भारत का सम्मान सर्वोपरि रखकर राजनीति करनी चाहिये। मात्र सत्ता बनाए रखना या सत्ता प्राप्ति उद्देश्य नहीं होना चाहिए बल्कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था सर्वोपरि रखकर देश व विदेश की राजनीति होनी चाहिये। बिना किसी पूर्वाग्रह के साथ सत्ता पक्ष को विपक्ष की बात सुननी चाहिए तो विपक्ष को भी सत्ता पक्ष के साथ देश हित की हर बात पर विवेक पूर्ण सहयोग करना चाहिये। किसी को भी अपनी बात कहने का अधिकार है। यदि सत्ता पक्ष विपक्ष की आलोचना करता है, तो विपक्ष को भी सत्ता पक्ष की आलोचना करने का पूरा अधिकार होता है। फिर चाहे यह आलोचना देश के अंदर हो या देश के बाहर हो, ख़ासतौर से तब जब इंटरनेट के इस जमाने में आलोचना कहीं भी की जाती है उसका प्रचार प्रसार पूरे विश्व के कोने कोने में होता है।

मेरा बिना किसी राजनीतिक दुराग्रह के यह मानना है कि दोनों पक्षों को हठवादिता छोड़कर देश के विकास के बारे में सोचना चाहिये। पार्लियामेंट और विधान मंडल वह स्थान हैं जहाँ जनता जनार्दन की हित साधना की बहस होती है, क़ानून बनते हैं, जनता के हित साधन सर्वोपरि मान कर राजनेता विकास की नीतियाँ तय करते हैं। फिर चाहे वह आंतरिक राजनीति की बहस हो या विदेश नीति की चर्चा हो। यह संस्थाएँ राजनीति व लोकतंत्र के धर्म स्थल होते हैं। जहाँ जनहित व राष्ट्रहित में समन्वय बिठाना सरकार का काम है तो सहयोग करना विपक्ष का काम है। बिना समन्वय व सहयोग के जनहित नहीं हो सकता और न राष्ट्रहित हो सकता है और जब ये दोनों हित नदारत होंगे तो विकास की कल्पना करना बेमानी है।

जय हिन्द, जय भारत।

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