जंगलराज शब्द कभी विपक्ष का हथियार, अब सत्ता की बेबसी

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

बिहार में ‘जंगलराज’ शब्द महज एक आरोप नहीं, बल्कि दशकों से सत्ता बदलने का सबसे कारगर हथियार रहा है। लालू-राबड़ी शासन के वक्त अगर कोई एक लाठी सबसे ज़्यादा चली तो वो थी जंगलराज के नाम की। नीतीश कुमार ने इसी के दम पर खुद को ‘सुशासन बाबू’ के तौर पर गढ़ा और एनडीए की गाड़ी को पटरी पर रखा। लेकिन आज वही जंगलराज फिर से चर्चा में है, फर्क बस इतना है कि बोलने वाले अब विरोधी हैं और चुप रहने वाले सत्ताधारी।बीते दो महीनों की घटनाएँ देखिए राजधानी पटना के बीचों बीच दिनदहाड़े कारोबारी गोपाल खेमका को गोली मार दी जाती है। पुलिस स्टेशन से कुछ ही दूरी पर व्यापारी का मर्डर बताता है कि अपराधियों को अब पुलिसिया कार्रवाई की परवाह नहीं रही। इससे पहले पारस अस्पताल में इलाजरत कुख्यात गैंगस्टर की हॉस्पिटल के अंदर घुसकर हत्या कर दी जाती है। पांच शूटर आते हैं, गोली मारते हैं और आराम से भाग जाते हैं।

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अस्पताल में सुरक्षा गार्डों की भी हिम्मत नहीं होती और पुलिस पहुँचने से पहले बदमाश फरार हो जाते हैं। बाद में पुलिस ताबड़तोड़ गिरफ्तारी दिखा कर अपनी पीठ थपथपा लेती है, मगर आम लोग सवाल पूछते हैं क्या यही सुशासन है?
नीतीश कुमार के लिए ये हालत कितनी मुश्किल हैं, इसका अंदाज़ा इसी से लगाइए कि जो जंगलराज कभी उनके भाषणों का स्थायी हिस्सा था, वो अब कहीं सुनाई नहीं देता। 18 जुलाई को मोतिहारी में पीएम मोदी की विशाल रैली में भी जंगलराज शब्द मंच से गायब रहा। जबकि यही मंच कभी लालू-राबड़ी शासन को घेरने का सबसे बड़ा हथियार होता था। मोतिहारी में प्रधानमंत्री ने बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की सौगात दी, विकास के आंकड़े गिनाए, लेकिन बिहार की सड़कों पर पसरी दहशत पर कुछ नहीं कहा।अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि जंगलराज का जिक्र सत्ता पक्ष के लिए बोझ बन गया? दरअसल ये शब्द अब बूमरैंग बन चुका है। विपक्ष इसे लालू यादव के बीते दौर के बजाय नीतीश के मौजूदा कार्यकाल से जोड़ रहा है। तेजस्वी यादव बार-बार कह रहे हैं कि जब हर रोज़ मर्डर हो रहे हैं, अस्पतालों में गैंगवार हो रहा है, व्यापारी कत्ल हो रहे हैं तो ये जंगलराज किसका है? सोशल मीडिया पर तेजस्वी ने लिखा ‘गुंडे सम्राट बन बैठे हैं और पुलिस अधिकारी बेबस रंक।’ यही तंज नीतीश सरकार को सबसे ज़्यादा चुभ रहा है।

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इसका बड़ा कारण यह भी है कि नीतीश सरकार के पास फिलहाल अपराध पर सख्त कार्रवाई का कोई ठोस खाका नजर नहीं आ रहा है। सिवान में एक ही रात में तीन लोगों की हत्या, नालंदा में दोहरी हत्या और पटना में खुलेआम गैंगवार ये सब अलग-थलग घटनाएँ नहीं हैं। ये हालात सरकार की कमजोर पकड़ और पुलिस प्रशासन के ढीले रवैये को दिखा रही हैं। डीजीपी ने हाल ही में कहा कि खेती-किसानी के खाली समय में बेरोजगारी के कारण अपराध बढ़ रहे हैं। सवाल यह है कि अगर अपराध बेरोजगारी से बढ़ रहे हैं तो बीते बीस साल में सरकार ने रोजगार देने के लिए कौन-सी ठोस नीति अपनाई? ऊपर से पुलिस के बड़े अधिकारी अब किसानों को अपराध का कारण बताकर बचना चाहते हैं और विपक्ष इसी बयान को जनता के बीच भुनाने में लगा है।

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दूसरी तरफ बीजेपी भी उलझन में है। जंगलराज शब्द छेड़ने पर बिहार के वोटर सवाल पूछेंगे कि जब करीब डेढ़ दशक तक आप सत्ता में हिस्सेदार रहे, तो फिर हालात क्यों बिगड़ गए? यही वजह है कि पीएम मोदी ने भी लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के वार तो किए, लेकिन जंगलराज की लाठी निकालने से बचते दिखे। एनडीए की पूरी रणनीति अब विकास योजनाओं और केंद्र की सौगातों पर टिकी है ताकि लोग अपराध की बात भूल जाएँ। पर क्या वाकई लोग भूल जाएंगे? यहाँ समाज का नजरिया भी बदल रहा है। पहले जाति ही राजनीति का सबसे बड़ा बंधन थी। लालू यादव की राजनीति इसी जातीय समीकरण के दम पर चमकी। नीतीश ने विकास और कानून-व्यवस्था को जाति से बड़ा मुद्दा बना दिया था। लेकिन अब सुशासन बाबू के राज में ही कानून-व्यवस्था सवालों के घेरे में है। छोटे व्यापारी डरे हुए हैं, बड़े कारोबारी बच्चों को बाहर भेजने की तैयारी में हैं और गांव-कस्बों में अपराधियों के हौसले देखकर लोग खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं।कई व्यापारी संगठन मांग उठा रहे हैं कि बिहार में यूपी जैसा बुलडोजर मॉडल लागू हो। यूपी में माफिया पर बुलडोजर चलता है तो बिहार में क्यों नहीं? यह सवाल एनडीए को अंदर ही अंदर परेशान कर रहा है। लोजपा के चिराग पासवान ने भी इसी तर्ज़ पर कहा कि पुलिस और अपराधियों की मिलीभगत है और सरकार को सख्ती से काम लेना चाहिए। यानी एनडीए में भी सब कुछ ठीक नहीं। भीतर ही भीतर ये दबाव है कि कहीं अपराध मुद्दा बन गया तो विकास के सारे दावे बेमानी साबित हो जाएंगे।

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सियासी गलियारों में अब चर्चा ये भी है कि जंगलराज शब्द का इस्तेमाल अब खुद लालू यादव को भी फायदे में डाल सकता है। विपक्ष इसे मौजूदा हालात से जोड़कर जंगलराज के पुराने टैग को पलटकर नीतीश के सिर बांध रहा है। यही वजह है कि जंगलराज बोलना अब खुद एनडीए के लिए जोखिम भरा है।लेकिन सबसे बड़ा सवाल जनता के मन में यही है कि बिहार किस दिशा में जाएगा? क्या अपराध के डर से लोग फिर से उसी पुराने दौर की तरफ लौटेंगे जब शाम होते ही सड़कें सुनसान हो जाया करती थीं? क्या सुशासन की कहानी महज़ नारे में सिमट जाएगी? या फिर चुनाव के वक्त एनडीए कोई नया कार्ड चलकर हालात संभाल लेगी? यह चुनाव बताएगा कि बिहार की जनता अब जाति के नाम पर वोट देगी या अपराध और रोजगार जैसे मुद्दों को असली कसौटी बनाएगी। फिलहाल हालात ये हैं कि जंगलराज का नाम भले मंच से गायब हो गया हो, लेकिन उसकी परछाईं हर गली-कूचे में लौट आई है। सड़कों पर बढ़ती गोलियां, व्यापारियों की डरती निगाहें और विपक्ष का बढ़ता हमला ये सारी तस्वीरें बता रही हैं कि बिहार का जंगलराज शब्द अब नेताओं के हाथ में नहीं, हालात की हकीकत में पल रहा है।

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