संस्मरण-18 : महारास की कथा..स्वामी जी की वाणी

बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी

या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोय‌। ज्यों ज्यों डूबै श्यामरंग त्यों त्यों उज्ज्वल होय।। जैसे जैसे श्याम रंग मे यह मन डूबा जारहा है,त्यों त्यों उज्ज्वल होता जारहा.. मन की कालिमा धुलती जारही है। बचपन में जो संस्कार पड़ जाते हैं,वे जल्दी छूटते नहीं। सदा वही भाव बना रहता है। बचपन मे सुना था.. स्वामी जी ने पिताजी से कहा है तुम्हारे पुत्र बन कर भगवान श्रीकृष्ण के गण ही आए हैं,आज भी वह सखा भाव गया नहीं है।

रात मे हर शरदपूर्णिमा को खीर बना कर हम लोग चांदनी मे रखते आए हैं,इस बार बादल ओर झर झर बूंदों ने चांद के दर्शन नहीं कराये। पर श्याम सुंदर को इसका कोई फर्क नहीं पड़ता,वह तो भादौ की अंधेरी रात मे घनघोर आंधी पानी के बीच प्रकटे थे। सो वंशी जरुर बजी और गोपियो के रूप मे सभी जीवात्मायें कदम्ब के नीचे खड़े होकर त्रिभ़गी मूरति मे वंशी बजाते हुए श्यामसुंदर से मिलने के लिए यमुना तट पर पहुंच कर महारास का आनंद लेंगी ही यह तय है‌। यही भाव मन मे उमड़ता रहा.. रात मे सोया जरुर पर 2 बजे रात मे ही आंखे खुल गई। पंखे की हवा मे सिहरन थी। जंगले से देखा आकाश बादलो से घिरा..वर्षा की बूंदो का झरना जारी था‌। फिर खीर मे अमृतवर्षा क्या होती..लेकिन महारास का आनंद तो तय था।सोने की इच्छा तो हुई पर सो न सका। यहारास का ही ध्यान आता रहा और स्मृति पटल पर तमाम भूली बिसरी यादें जिंदा हो गई। स्वामी जी याद आए..उनके महाभाव की स्मृतियां तरोताजा हो गई। भक्त भी थोड़े सनकी होते ही हैं..अकेले ही कभी गुनगुनाते है तो कभी प्रभु की किसी न किसी लीला मे शामिल होजाते है। जब कि आज तो शरदपूर्णिमा की रात ही थी‌।

श्री स्वामी जी महारास का वर्णन कथा सत्स़ग मे करते थे
भगवानपि ता रात्रि: शरदोत्फुल्लामल्लिका।

वीक्ष्य रन्तुं मश्रच्क्रे योगमायामुपाश्रित: ..।।

अर्थात :  शरद ऋतु थी, उसके कारण बेला चमेली आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महं-महं महक रहे थे भगवान ने चीर हरण के समय गोपियों को जिन रात्रियों का संकेत किया था, वे सब की सब पुंजीभूत होकर एक ही रात्रि के रूप में उल्लसित हो रही थी।भगवान ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया, गोपियां तो चाहती ही थी अब भगवान ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रास क्रीडा करने का संकल्प किया.अमना होने पर भी उन्होंने अपने प्रेमियों की इच्छा पूर्ण करने के लिए मन स्वीकार किया।

ता रात्री: ..यहाँ रात्रियो के समूह के बारे में कहा गया है.किसी एक रात्रि की बात नहीं है। अर्थात जब गोपियों ने कात्यायनी माता का पूजन किया, उन साधन सिद्धा गोपियों के लिए, नित्य सिद्धा गोपियों के लिए, या जहाँ श्री प्रिया जी के साथ अष्ट सखियों का प्रवेश हो सकता है वे वाली रात्रि, केवल राधारानी जी के साथ बितायी निभृत निकुंज वाली रात्रि, अलग-अलग ऋतुओ की, अलग-अलग सारी रात्रियो के किये नृत्य को एक साथ कहने का अभिप्राय – ता रात्री: से है।

जहाँ समय का भी प्रवेश नहीं

रास की इस रात्री में “समय” का भी प्रवेश नहीं है, क्योकि रास में जहाँ सभी चीजे अप्राकृत है वहाँ रात्रि प्राकृत कैसे हो सकती है? ये रात्रि भी अप्राकृत है… दिव्य है,गोलोक से आई है. यहाँ ब्रह्मा जी की रात्रि से तुलना की गई है क्योकि ब्रह्मा जी की रात्रि सबसे बड़ी होती है इससे ऊपर गणना नहीं की जा सकती। गणना करने के निमित्त ब्रह्मा जी की एक रात्रि को उदहरण स्वरूप लिया है।
श्रीकृष्ण ने चांदनी रात मे यमुना के तट पर त्रिभ़गी अदा मे खड़े होकर वंशी बजाई..योगमाया की मदद लेकर महारास का मन बनाया..वंशी की धुन ने चराचर जगत को जगा दिया। गोपियां भाव विह्वल हो उठीं..जो जिस काम मे निमग्न थी..वह भूल गई। जो श्रृंगार कर रही थीं..उनका श्रृ़गार अधूरा रह गया..भोजन बना रही थी..भोजन पाक शाला मे जैसे का तैसा रह गया..जो जिस काम मे निमग्न थी..उन्हे अपने तन वदन का होश नहीं रह गया। वे वौशी की धुन सुन कर बेसुध होकर चल पड़ी। जिनको परिजनो ने दरवाजे बंद कर रोका वे वही समाधि मे लीन हो गई। जो पति,देवर ससुर को भोजन करा रही थी,उन्हे परोसने की सुधि न रही..।

शुकदेव  कहते है इति वेणु रवं राजन! वंशी की धुनि ने सबको पागल बना दिया। तब श्रीकृष्ण ने अपनी योग माया को आज्ञा दी.. जिनके श्रृ़गार अधूरे हो उनके श्रृंगार पूरी करे,जिन्होने आधे अधूरे वस्त्र पहने हो.. उन्हे वस्त्र पहनाये। सबको पूरी तरह मर्यादित कर महारास के लिए तैयार करे। फिर सबके आने पर महारास रास भर चलता रहा। कभी श्रीकिशोरी जी के मान करने पर श्यामसुंदर अंतर्धान होजाते तो सभी व्याकुल होजाती.. नेत्रो मे आंसू भर जाते। फिर श्रीकृष्ण प्रकट होते। गोपियां अंतर्हित कृष्ण के थोड़ी दूरी बढ़ाने पर व्याकुल होजातीं। फिर श्रीकृष्ण एक एक गोपी के साथ नाना रूप धारण कर नृत्य करने लगते। इस तरह कितनी बड़ी रात्रि हुई,कह पाना कठिन है‌। महारास मे स्वयं शंकर जी भी गोपीश्वर महादेव के रूप मे पधारे और अनेक संत महात्मा भी गोपी रूप मे शामिल हुए। मेरे लिए भी स्वामी जी महाराज के शब्दो मे वर्णन कर पाना बहुत कठिन लग रहा है‌,इसलिए यही विराम देता हू़ं। वैसे तो भक्त भगवान से प्यार करते हे। इसमे महारास मे भगवान ने भक्तो पर कृपा बरसाई है।

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