- लखनऊ की युवा अधिवक्ता पौलोमी पाविनी शुक्ला की अपील पर सर्वोच्च अदालत का बड़ा फैसला
- अब देश का हर अनाथ पढ़ाई के लिए नहीं रहेगा बेसहारा, RTE के तहत उसे मिलेगी उत्कृष्ट शिक्षा
नया लुक संवाददाता
बेसहारों को जो सहारा देता है,
वही तो मेहमां हमारा होता है।
जो जमीन को सँवारा होता है,
वही तो चमकता तारा होता है।
कमल किशोर कौशल की यह लघु कविता लखनऊ की शुक्ला पर बिल्कुल फिट बैठती है। कहते हैं बेसहाराओं का कोई मसीहा नहीं होता, बस कुछ लोग होते हैं जो उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं। उनकी मदद के लिए पौलोमी पाविनी शुक्ला ने देश की सर्वोच्च अदालत में एक जनहित याचिका दायर की। उन्होंने कोर्ट से याचना किया कि देश के सभी अनाथ बच्चों को शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) के अंतर्गत पढ़ने का अवसर मिलना चाहिए। सरकार यह सुनिश्चित करें कि अनाथ बच्चों को उनके आसपास के स्कूलों में प्रवेश जरूर मिले। वो पहले ही अपने माता-पिता को खो चुके हैं, दुनिया की कई ठोकरें उन्हें अनायास खानी है, लेकिन उन्हें अच्छे स्कूलों में शिक्षा न मिले, उनके हिस्से का यह हक भी नहीं खोना चाहिए। उनकी PIL पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और केवी विश्वनाथन ने एक अत्यंत उदार, संवेदनशील और ऐतिहासिक आदेश पारित किया। न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे अनाथ बच्चों को शिक्षा के अधिकार नियम (RTE) में शामिल करें और उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाएं।

देश की सबसे बड़ी कचहरी ने भी सभी राज्यों को इस आदेश का पालन करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि यह कार्य राज्य सरकारों द्वारा सरकारी आदेश (G.O.) जारी करके किया जाए। यह निर्णय न केवल न्याय का एक सशक्त उदाहरण है, बल्कि यह सर्वोच्च न्यायालय की विशालता, करुणा और संवैधानिक दृष्टिकोण को भी दर्शाता है। एक ऐसा ऐतिहासिक दिन जब देश की सबसे कमजोर और अनसुनी आवाज़ को देश की सबसे ऊँची अदालत ने न सिर्फ सुना, बल्कि उन्हें सशक्त करने का मार्ग भी प्रशस्त किया।
पौलोमी पाविनी शुक्ला ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अत्यंत दयालु, दूरदर्शी और आवश्यक बताया है। बकौल याचिकाकर्ता, इससे भारत के लाखों-करोड़ों अनाथ बच्चों को शिक्षा का समान अवसर मिलेगा। न्यायालय ने न केवल इस विषय में मानवीय संवेदनशीलता दिखाई, बल्कि राज्य को ‘अनाथ बच्चों का पालक पिता’ (Parens Patriae) मानते हुए यह स्पष्ट किया कि जब माता-पिता नहीं होते, तो राज्य की नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह बच्चों की देखभाल और शिक्षा सुनिश्चित करें।
सर्वोच्च न्यायालन ने संविधान के अनुच्छेद-51 का भी उल्लेख करते हुए कहा कि राज्य का कर्तव्य है कि सभी अनाथ बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त हो। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि राज्य सरकारें यह सर्वेक्षण करें कि कितने अनाथ बच्चे अभी स्कूल से बाहर हैं और उनकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए। यानी शिक्षा के अधिकार अधिनियम की मूल भावना के अनुसार अनाथ बच्चों को भी प्रतिष्ठित स्कूलों में पढ़ाई करने का अवसर मिलेगा।

गौरतलब है कि यूनिसेफ (UNICEF) के अनुसार भारत में दो करोड़ से अधिक अनाथ बच्चे हैं। लेकिन आज तक इन बच्चों की कोई सरकारी गिनती नहीं की गई है। इस संदर्भ में पाविनी शुक्ला ने अदालत के समक्ष यह अत्यंत महत्वपूर्ण मांग भी रखी कि देश में चल रही जनगणना में अनाथ बच्चों की गणना अनिवार्य रूप से की जाए। उनके इस मांग पर भारत सरकार की ओर से Solicitor General ने कहा कि अनाथ बच्चों को जनगणना डेटा में शामिल किया जाना चाहिए और कहा कि वे इस संबंध में आवश्यक निर्देश प्राप्त करेंगे।
बताते चलें कि सुश्री शुक्ला ने पूरे देश में अनाथ बच्चों की दयनीय स्थिति पर विस्तृत शोध किया है और इस पर आधारित अपनी पुस्तक “Weakest on Earth – Orphans of India” (प्रकाशक: Bloomsbury) लिखी है। उनकी जनहित याचिका के दायर होने के बाद, कई राज्य सरकारों ने अनाथ बच्चों के लिए आरक्षण जैसी योजनाएं लागू की हैं। उनकी इस दिशा में असाधारण और प्रभावशाली कार्य के लिए उन्हें “Forbes 30 Under 30” की प्रतिष्ठित सूची में भी शामिल किया गया है।
