विवाद के समय बीजेपी क्यों छोड़ देती है अपने नेताओं का साथ

लेखक राजधानी लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं…

संजय सक्सेना

लखनऊ। भारतीय जनता पार्टी भारत की सबसे बड़ी और सबसे संगठित राजनीतिक पार्टियों में से एक है। अनुशासन, संगठनात्मक ढांचा और विचारधारा की स्पष्टता इसके प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में यह प्रवृत्ति देखी गई है कि जब पार्टी के किसी नेता पर विवाद खड़ा होता है, तो पार्टी उनसे सार्वजनिक रूप से दूरी बना लेती है या उन्हें पद से हटाने में देर नहीं करती। यह परिपाटी कई बार यह सवाल खड़ा करती है कि आखिर विवाद के समय बीजेपी अपने ही नेताओं का साथ क्यों छोड़ देती है,ब ीजेपी आलाकमान का मुसीबत के समय अपने नेताओं का साथ छोड़ने का सिलसिला काफी पुरानी है। साध्वी प्रज्ञा हो या विवादित बयान देने वाली नुपुर शर्मा और अब केन्द्रीय मंत्री निशिकांत दुबे,राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा या अन्य कोई बीजेपी किसी भी नेता से किनारा करने में देरी नहीं करती है, अन्य दलों का शीर्ष नेतृत्व मुसीबत के समय अपने नेता के साथ कंधे से कंधा मिलाये खड़ा रहता है। समाजवादी पार्टी के विवादित नेता और सांसद रामजी लाल सुमन इसकी ताजा मिसाल है। सुमन ने वीर पुरुष और महानायक राजा राणा सांगा को गद्दार कहा था।

ऐसा क्यों होता है, इसकी तह में जाया जाये तो पता चलता है कि बीजेपी अपने ब्रांड को विकास  और राष्ट्रवाद  के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करती रही है। पार्टी नेतृत्व यह अच्छी तरह समझता है कि किसी भी नेता से जुड़ा विवाद संपूर्ण पार्टी की छवि पर असर डाल सकता है। ऐसे में वह डैमेज कंट्रोल की नीति अपनाती है। उदाहरण के तौर पर, जब बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगे, तो पार्टी ने सीधे तौर पर उनका समर्थन नहीं किया, भले ही वह एक लंबे समय से पार्टी के प्रभावशाली चेहरा रहे हों। इसी तरह, जब पूर्व मंत्री एमजे अकबर पर मी टू अभियान के दौरान कई महिलाओं ने आरोप लगाए, तो पार्टी ने चुपचाप उन्हें पद से हटने दिया, बिना उनका खुला समर्थन किए।

बीजेपी का संगठनात्मक ढांचा यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति नहीं, संगठन सर्वाेपरि रहे। इसलिए जब कोई नेता विवाद में आता है, तो पार्टी पहले यह देखती है कि उनका बचाव करने से संगठन को कितना नुक़सान हो सकता है। अगर पार्टी नेतृत्व को लगता है कि उस नेता का समर्थन करना पार्टी की छवि पर बुरा असर डालेगा, तो वह उससे दूरी बना लेती है। यहाँ संघ परिवार की सोच भी प्रभावी होती है, जहाँ व्यक्तिवाद की बजाय सामूहिक निर्णय को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में कोई भी नेता पार्टी से ऊपर नहीं हो सकता।

दरअसल, बीजेपी चुनावी राजनीति में बेहद रणनीतिक है। अगर किसी नेता के विवाद से जनता में आक्रोश है या विपक्ष को मुद्दा मिल सकता है, तो पार्टी उस नेता को बलि का बकरा बनाकर अपनी राजनीतिक ज़मीन सुरक्षित करती है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर हों या उमा भारती, समय-समय पर जब उनके बयानों या कार्यों से पार्टी की रणनीति को चुनौती मिलती दिखी, तो पार्टी ने उन्हें दरकिनार कर दिया। इससे साफ़ है कि पार्टी का फोकस वोटर सेंटिमेंट और इलेक्शन मैनेजमेंट पर है, न कि व्यक्तिगत निष्ठा पर।

ऐसा इसलिये भी होता है क्योंकि आज का दौर इंस्टैंट जजमेंट का है। जैसे ही किसी नेता पर आरोप लगते हैं, सोशल मीडिया पर ट्रेंड शुरू हो जाता है। बीजेपी यह समझती है कि अगर वह बचाव में उतरती है, तो यह आक्रोश और तेज़ हो सकता है। इसलिए वह साइलेंस मोड या डिस्टेंसिंग की रणनीति अपनाती है। यह नीति कभी-कभी नेताओं को अकेला महसूस करवा सकती है, लेकिन पार्टी को लगता है कि यह सार्वजनिक नाराजगी को ठंडा करने का सबसे तेज़ तरीका है।

अभी बीजेपी नेताओं निशिकांत दुबे, डा0 दिनेश शर्मा आदि कुछ नेताओं के न्यायपालिका पर दिये गये विवादित बयान के बाद बीजेपी ने इन नेताओं से जिस तरह दूरी बनाई वह बीजेपी के कुछ समर्थकों को खराब भी लग रहा है। जबकि राजनीति के कुछ जानकारों का कहना है कि अक्सर खुद को संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करने वाली पार्टी के रूप में पेश करती है। ऐसे में अगर किसी नेता पर कानूनी आरोप लगते हैं, तो पार्टी यह संदेश देना चाहती है कि वह किसी को कानून से ऊपर नहीं मानती। भले ही अंदरूनी स्तर पर नेता का समर्थन किया जा रहा हो, सार्वजनिक मंच पर पार्टी न्यायिक प्रक्रिया के पक्ष में खड़ी दिखना चाहती है।

लेकिन सवाल ये भी उठता है कि क्या ये नीति सही है? यह रणनीति अल्पकालिक लाभ तो देती है, लेकिन इससे पार्टी के अंदर यह भावना पनपती है कि पार्टी मुश्किल समय में अपने ही नेताओं का साथ नहीं देती। इससे पार्टी के अंदर विश्वास की कमी पैदा हो सकती है। कई पुराने नेताओं ने यह नाराज़गी  भी जताई है कि पार्टी यूज़ एंड थ्रो की नीति अपनाती है। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह नीति राजनीतिक शुचिता के नाम पर राजनीतिक अवसरवाद को बढ़ावा देती है। जब तक नेता उपयोगी होता है, उसे सिर पर बैठाया जाता है और जैसे ही वह पार्टी के लिए बोझ बनता है, उसे किनारे कर दिया जाता है।

कुल मिलाकर बीजेपी का विवाद के समय नेताओं से दूरी बनाना एक सुविचारित रणनीति का हिस्सा है, जिसका मकसद पार्टी की छवि और राजनीतिक पूंजी को सुरक्षित रखना है। हालांकि यह नीति दीर्घकालिक रूप से संगठनात्मक विश्वसनीयता और निष्ठा की भावना को चोट पहुँचा सकती है। यह चुनौती बीजेपी के लिए उतनी ही गंभीर है जितनी किसी विवाद में घिरे नेता के लिए। पार्टी को यह संतुलन साधना होगा कि संगठन की प्रतिष्ठा बचाते हुए, अपने कर्मठ नेताओं का आत्मसम्मान भी सुरक्षित रखा जाये।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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