दो टूक : खरगे के पीएम पद के नाम पर कोई राजनीति तो नहीं हो रही

राजेश श्रीवास्तव

चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद लंबी जद्दोजहद के बावजूद पिछले दिनों इंडिया गठबंधन की बैठक दिल्ली में आयोजित की गयी। उम्मीद थी कि जिस तरह विधानसभा चुनावों में विपक्ष बिखरा-बिखरा रहा, वह अब खत्म हो जायेगा। लेकिन कहते हैं कि जब सामने बड़ा खतरा हो तो एक-दूसरे के विरोधी भी एकजुट हो जाते हैं इसे एकता कहिये या मजबूरी। लेकिन एक बार फिर विधानसभा चुनाव में एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाले सारे दल जुटे। इस बैठक में उम्मीद से बढ़कर एक कदम उठाया गया। बैठक थी शीट शेयरिंग के फार्मूले के इजाद की लेकिन विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए एक ऐसे चेहरे की सुगबुगाहट तेज हो गयी।

 

वह चेहरा और कोई नहीं कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खरगे का है। क्या खरगे के नाम पर विपक्षी उम्मीदवार के रूप में दावेदारी पर सभी विपक्षी दलों के बीच आम सहमति बन पाएगी? अगर ऐसा होता है तो क्या खरगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने चुनौती पेश कर पाएंगे?

 

यह ऐसे सवाल हैं जो इन दिनों हर एक दल के सामने मुंह बाये खड़े हैं। सवाल सिर्फ इतना ही नहीं है बल्कि यह भी है कि क्या यह गठबंधन मूर्त रूप लेगा? बैठक के दौरान नेता के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव आने के पीछे की क्या राजनीति है? लेकिन मेरा मानना है कि यह बैठक बस केवल इतनी सफल मानी जाएगी कि विधानसभा चुनाव के दौरान सपा और कांग्रेस के बीच जो तल्खी आई थी, वह कम होती दिखी। इसके अलावा जो सफलता की बात होगी, उस बारे में अभी नहीं कहा जा सकता।

राहुल गांधी की पद यात्रा कब से शुरू होती है? क्या इसमें इंडिया गठबंधन के नेता शामिल होते हैं? 2०24 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी को चुनौती देने के लिए वे किस तरह आगे बढ़ रहे हैं? अगर इन सवालों का जवाब मिलता है तो इसे सफल माना जाएगा। वर्ना वही ढाक के तीन पात वाली कहावत बनकर रह जाएगी। अब तक गठबंधन के संयोजन का फैसला नहीं हुआ है। समय भी बहुत कम बचा है। हो सकता है कि चुनाव जल्दी हो जाएं। ऐसे में इस गठबंधन के सामने कई चुनौतियां हैं। भाजपा ने जो नरैटिव सेट किया है, क्या उसका कोई काउंटर नरैटिव इंडिया गठबंधन दे पाएगा, यह बड़ा सवाल है। अगर कोई कारगर ब्लू प्रिंट आप जनता को दे सकते हैं तो जनता आपको समर्थन जरूर देगी। अगर नहीं दे पाएंगे तो आपको समर्थन नहीं मिलेगा। यह इंडिया गठबंधन के सामने बड़ी चुनौती है। सीटों का बंटवारा बड़ी चुनौती है।

उत्तर प्रदेश में मायावती क्या करेंगी, यह नहीं पता, लेकिन एक बात तय है कि वे चुनाव से पहले भाजपा से गठबंधन नहीं करेंगी। ये बात सही है कि कांग्रेस के कुछ लोग चाहते हैं कि बसपा इस गठबंधन में आए। यह बात अखिलेश यादव नहीं चाहते, लेकिन अगर मायावती आती हैं तो अखिलेश गठबंधन से बाहर जाने की स्थिति में नहीं हैं। इंडिया गठबंधन का स्वरूप क्या है, आपका लक्ष्य क्या है और उसका न्यूनतम साझा कार्यक्रम क्या है? ये किसी भी गठबंधन का आधार होता है। मेरा मानना है कि जनता किसी प्रयोग के लिए वोट नहीं डालेगी। स्थायित्व वाली सरकार के लिए नेता भाजपा या कांग्रेस से होना जरूरी है, यह आजादी के बाद से अब तक का इतिहास बताता है। जनता के बीच हम मिलेंगे से ज्यादा, हम नहीं मिलेंगे के संदेश आ रहे हैं।

कर्नाटक और तेलंगाना के चुनाव के बाद यह हवा है कि अल्पसंख्यक अब कांग्रेस के साथ जा सकते हैं। दक्षिण के अल्पसंख्यकों ने क्षेत्रीय पार्टियों का साथ इसलिए छोड़ा क्योंकि उन्हें लगता था कि जीत के बाद यह पार्टियां भाजपा के साथ जा सकती हैं, जबकि उत्तर भारत में ऐसा नहीं है। 2०19 में जो प्रयोग उत्तर प्रदेश में हो चुका है, वह पहले नहीं सफल हुआ तो अब दोबारा होगा, ऐसा दिखता नहीं है। दूसरी तरफ खरगे को पीएम उम्मीदवार के तौर पर ममता के प्रस्ताव पर हुआ। खरगे भी जानते हैं कि वे राहुल गांधी और सोनिया गांधी की लाइन को क्रॉस नहीं कर पाएंगे। जहां तक चेहरे की बात है तो आपको चेहरा लाना ही होगा। भले वो चेहरा कोई भी हो। तमाम लोगों को लगता है कि खरगे का नाम सबसे बेहतर है। एक तो यह कि वे दलित हैं, दूसरा कांग्रेस के बड़े नेता हैं, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। ऐसे में इंडिया गठबंधन के पास पीएम मोदी से मुकाबला करने के लिए खरगे से बेहतर चेहरा नहीं है। भाजपा जल्द ही कमजोर सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर सकती है। ऐसे में इंडिया गठबंधन को तेजी दिखानी होगी।

उत्तर प्रदेश में अखिलेश बिना गठबंधन के चुनाव नहीं लड़ेंगे। अखिलेश जानते हैं कि 2024 में अगर वे गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ते हैं तो उनका सफाया तय है। बिना मायावती के समर्थन के आप उत्तर प्रदेश में नहीं लड़ सकते हैं। मायावती से गठबंधन को फायदा होगा। मुझे लगता है कि आखिरी में तीनों दलों का गठबंधन होगा। यही स्थिति बंगाल में होने वाली है। ममता बनर्जी भाजपा को खारिज नहीं कर सकती हैं। वे भी कांग्रेस को साथ लेकर चलेंगी। हालांकि, ममता बनर्जी लेफ्ट को साथ नहीं लेकर चलना चाहती हैं। खरगे के नाम पर जो चर्चा हो रही है। वह इस तरह है कि जो होना ही नहीं है, उसकी ज्यादा से ज्यादा चर्चा की जाए। इस गठबंधन के एक दिन पहले तृणमूल कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं ने ममता को चेहरे के रूप में सामने रखने की बात कही।

ममता ने इसका खंडन नहीं किया। एक दिन बाद उन्होंने खरगे का नाम ले लिया। इसके क्या मायने हैं? ममता ने कांग्रेस को जानबूझकर एक्सपोज करने के लिए खरगे का नाम लिया। क्योंकि कांग्रेस इसे स्वीकार नहीं करेगी। अब तक इस गठबंधन का मूर्त होना संभव नहीं दिख रहा है। लेकिन एक बड़ी बात यह है कि पीएम मोदी के सामने खरगे ऐसा नाम नहीं है जिस पर आम आदमी प्रभावित हो खासकर उत्तर भारत में, लेकिन गठबंधन के पास ऐसा चेहरा भी नहीं है जो मोदी के नाम के आगे चुनौती बनकर खड़ा हो। अब देखना है कि गठबंधन जिसमें हर दल का नेता पीएम पद का दावेदार है, खरगे के नाम पर कितनी सहमति बनेगी।

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