युवा असंतोष और वर्तमान राजनीति

बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी

सुबह नींद खुलने के साथ युवाओं की समस्या ध्यान में आने लगी। ये युवा अपने घर के हो या समाज के पीड़ा तो सबकी एक है। सरकारी सेवाओं में कार्यरत अधिकांश लोगो को और सत्ताधारी पार्टी के लोगों को प्राइवेटाइजेशन बहुत भा रहा। जब कि 2004में पुरानी पेंशन सुविधा को बंद कर तत्कालीन केंद्र सरकार ने भविष्य असुरक्षित कर दी। फिर सरकारी संस्थानों मे पहले संविदा पर भर्ती और फिर सरकारी उपक्रमौं का ताबड़ तोड प्राइवेटाइजेशन करके वर्तमान असुरक्षित कर दिया। इससे युवा असंतोष होना स्वाभाविक है। दलीलें कुछ भी देलें। जिनके घर खेती नहीं,कोई बिजनेस भी नहीं उनके परिवार का भरण पोषण,बच्चों की महंगी शिक्षा और भविष्य कहां जाएगा। प्रधानमंत्री आवास और महज कुछ किलो सीधा बांट कर कब तक उन्हें दिलासा देते रहेंगे। किसी तरह जी लेना विकास तो नहीं कहलाता। पारंपरिक पढ़ाई के बाद सिर्फ प्रतियोगिता में उम्र खपाने वालों के लिए सरकार के पास क्या प्लान है,इसका खुलासा तो करिये।

इन्हें इनकी हालात पर छोड़ देना सरकार की नाकाबिलियत ही कहीं जाएगी। बचपन में नारे सुनते थे…रोटी रोजी दे न सके जो वो सरकार निकम्मी है…जौ सरकार निकम्मी है वो सरकार बदलनी है। महीनों तक चलने वाले ट्रेड यूनियनों और शिक्षकों कै आंदोलन देखें हैं। जिस पर तत्कालीन सरकारों ने समझौते कर राष्ट्रीयकरण और बैंक से वेतन भुगतान की प्रक्रिया सुनिश्चित की थी। भविष्य के लिए पेंशन सुविधा मुहैया किते थे। सन 60-75 तक चले आंदोलनों के सुनिश्चित परिणाम मिले। पर 80-84तक आते आते शिक्षक संगठन और ट्रेड यूनियनों का जोर कमजोर पड़ता गया। सरकारों ने अपनै भेदिये लगा कर संगठन में दरार डाल कर उन्हें कमजोर किया। अब वे नाम मात्र के बिजुका संगठन होकर रह गए। इनके आंदोलनों को विधिवत कुचला गया।

सरकार ने नब्बे के दशक से संविदा कर्मी,शिक्षा मित्र,विषय विशेषज्ञ से जैसे नाम से ठीके पर काम लेना शुरु किया। जिससे शिक्षित युवाओं का वर्तमान अधर में चला गया। संगठनों के कमजोर पड़ने से 2004मे़ पेंशन सुविधा छीन ली। इक्कीसवीं सदी में तो और कमाल होगया। सरकार कारपोरेट सेक्टर की तरह काम करने लगी। मजदूर और मालिक का रिश्ता सिर्फ कंपनियों में नहीं…सरकारी संस्थानों में भी चलने लगा। फिर प्राइवेटाइजेशन ने इसकी बची खुची भरपाई कर दी। आज हम जिस मुहाने पर खड़े हैं वह युवाओं के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करता है और वर्तमान को भी दिशाहीन बनाता है। कहना न होगा, आजादी के तत्काल बाद जो स्थिति थी, वही आगई।

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