माया राजनीति से मोह भंग की शिकार नहीं, बस सही समय का इंतजार!

संजय सक्सेना

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में 2027 होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी काफी मशक्कत कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कहीं नजर नहीं आ रही हैं। कांग्रेस को तो फिर भी इस बात की उम्मीद है कि 2027 के चुनाव में अपने गठबंधन के सहयोगी समाजवादी पार्टी की ‘पीठ’ पर चढ़कर कुछ हद तक अपनी नाक बचा लेगी,लेकिन चुनाव को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की खामोशी राजनैतिक पंडितों के साथ-साथ उसके कोर वोटरों को भी समझ में नहीं आ रही है। आज यूपी में बसपा की हालत पहले जितनी बिल्कुल भी मजबूत नहीं रह गई है, बल्कि उसकी स्थिति कहीं न कहीं कमजोर पड़ती नजर आती है। वर्ष 2007 में मायावती ने बसपा को अकेले दम पर 206 सीटें जिताकर बहुमत की सरकार बनाई थी। इसके बाद से पार्टी का वोट प्रतिशत लगातार गिरता गया। यूपी विधानसभा चुनाव 2012 से लेकर लोकसभा चुनाव 2024 तक लगातार चार बड़े चुनावों में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। इन हार के बाद बसपा के सामने अब अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। यही कारण है कि मायावती 9 अक्तूबर की रैली से अपने समर्थकों को एकजुट करने और विपक्षी दलों को चुनौती देने की तैयारी में हैं। उनकी कोशिश कैडर को एकजुट करने की है। भले ही बसपा में अब बड़े नेताओं का अभाव हो, लेकिन मायावती और बसपा नेता बनाने एवं संगठन को खड़ा करने के लिए जानी जाती रही हैं। ऐसे में मिशन 2027 को कैसे लेकर वे आगे बढ़ेंगी, देखना दिलचस्प रहेगा।

2012 के बाद से बसपा का सत्ता से वनवास चल रहा हैै। 2022 के विधानसभा चुनाव में यह पार्टी महज एक सीट पर सिमट गई थी और 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में उसका खाता तक नहीं खुला। वोट प्रतिशत लगातार गिरता गया है, 2022 में लगभग 13 फीसदी और 2024 में सिर्फ 9.39 फीसदी वोट मिले, जो राजनीतिक गिरावट का संकेत देता है। कभी कड़क छवि की पहचान रखने वाली मायावती के तेवर अब बिल्कुल ढीले पड़ गये हैं इसी वजह से उनके नेतृत्व में बसपा की सियासी पकड़ कमजोर हो चुकी है, खासकर गैर-जाटव दलितों का एक बड़ा हिस्सा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की तरफ शिफ्ट हो गया है और जाटव वोट बैंक में भी सेंधमारी हुई है।

इस मुश्किल हालात को भांपते हुए मायावती और उनकी टीम संगठनात्मक स्तर पर लगातार राजनीतिक एक्सरसाइज कर रही हैं। पार्टी के भीतर और बाहर रोजाना बैठकें और संगठन की नई रणनीति बन रही है। मायावती ने सत्ता में वापसी के लिए दलितों के साथ-साथ ओबीसी और मुस्लिम वोटर्स को साधने का मिशन शुरू किया है। इसके तहत मंडल, जिला और बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत किया जा रहा है और एक बूथ पांच यूथ जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं। मायावती की रणनीति यह है कि 2007 में जिस ‘भाईचारा कमेटी’ के फार्मूले के जरिए सभी वर्गों का गठजोड़ बनाकर सत्ता हासिल की थी, उसी को फिर लागू किया जाए। संगठन की 1600 से ज्यादा टीमें गांव-गांव जाकर पोलिंग बूथ और सेक्टर कमेटी बना रही हैं, ताकि कार्यकर्ताओं को जोड़ा जा सके और पार्टी का जनाधार बढ़ाया जा सके।

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बसपा का एक और बड़ा फोकस आगामी पंचायत चुनावों पर है। पार्टी मानती है कि अगर पंचायत चुनाव में सफलता मिलती है तो विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को ऑक्सीजन मिलेगा। इसलिए पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जा रही है और बूथ स्तर पर काम तेज कर दिया गया है। सपा और बीजेपी दोनों ने बसपा के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध तो जरूर लगाई है, पर मायावती यह मानती हैं कि अगर संगठनात्मक ढांचा मजबूत किया जाए और सामाजिक गठबंधन फिर से ज्यादा प्रभावी तरीके से खड़ा किया जाए तो पार्टी को दोबारा उभार मिलेगा।

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, मायावती के मन में राजनीति से ऊब की स्थिति नहीं है, बल्कि आज भी वे बसपा के सियासी भविष्य के लिए पूरी संजीदगी से जुटी हुई हैं। लगातार रणनीतिक बदलाव, संगठन के विस्तार व सोशल इंजीनियरिंग के अनेक प्रयोग यह संकेत देते हैं कि मायावती सियासत से किनारा करने का कोई विचार नहीं रखतीं। लेकिन उनकी चुनौती यह है कि दलित समाज अब बसपा के साथ उतना नहीं है, जितना पहले था। उसका एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ है, कुछ मुस्लिम वोटर सपा के साथ चले गये हैं और ओबीसी वोट बैंक में भी सेंधमारी हुई है। सपा और बीजेपी दोनों ने बसपा की ताकत को काफी कमजोर कर दिया है। हाल के सालों में पार्टी के भीतर एक्टिव चेहरों जैसे आकाश आनंद के जुड़ने के बाद संगठन में नई ऊर्जा जरूर दिख रही है, मगर सत्ता की राह आसान नहीं लग रही।

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2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारी बसपा ने समय रहते ही शुरू कर दी है। पंचायत चुनाव में जोरदार दांव, भारी संगठनात्मक फेरबदल, नए-पुराने वोटरों को साधने की कोशिश और लगातार चल रही बैठकों से बसपा फिर मजबूती से मैदान में खड़े होने का दावा कर रही है। मायावती भाजपा और सपा के मुकाबले खुद को अलग दिखाने की कोशिश में हैं, लेकिन असली परीक्षा 2027 में ही होगी, जहां पता चलेगा कि बसपा का नया सियासी प्रयोग दलित-ओबीसी-मुस्लिम गठजोड़ के साथ क्या रंग लाता है। फिलहाल, पार्टी एक बूथ, पांच यूथ के संगठन मॉडल को जमीन पर उतार रही है। हाशिए पर आई पार्टी की वापसी के लिए मायावती ने पूरी ताकत झोंकी है, मगर सियासी जमीन पर मजबूती तभी आएगी जब मूल वोट में सेंध को रोककर नये वर्गों का समर्थन पार्टी अर्जित कर पाएगी।

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