राजेश श्रीवास्तव
यूपी में धर्म पर विवाद कोई नया नहीं है । हर बार उत्तर प्रदेश में सावन माह आते ही कांवड यात्रा पर राजनीति शुरू हो जाती है। पिछले पांच सालों से यात्रा हर बार किसी न किसी विवाद के कारण सुर्खियों में रही है। चाहे वह कांवड़ियों पर हेलिकॉप्टर से पुष्पवर्षा हो, कांवड़ की ऊंचाई को लेकर नियम हो, या फिर कांवड़ मार्ग पर होटलों और दुकानों के मालिकों की पहचान। हर साल यह मुद्दा दो महीने तक सियासी गलियारों में गूंजता है। 1० जुलाई से कांवड़ यात्रा शुरू होनी है। लेकिन उससे पहले ही विवाद शुरू हो गया है। इस बार समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व सांसद एसटी हसन ने विवाद की शुरुआत की है। उन्होंने कहा कि कावड़ मार्ग पर मुस्लिमों से उनकी पहचान पूछी जा रही है, जैसे पहलगाम में आतंकवादियों ने धर्म पूछा था।
यह मामला अब गंभीर होता जा रहा है। मुजफ्फरनगर से बीजेपी विधायक और मंत्री कपिल देव अग्रवाल ने कहा कि निश्चित तौर पर उन लोगों की पहचान होनी चाहिए जो कावड़ यात्रा पर खाने-पीने की चीजें बेच रहे हैं। इसमें कोई गलत बात नहीं है और जिस तरह से एसटी हसन ने कावड़ियों की बराबरी आतंकवादियों से की है यह बहुत ही आपत्तिजनक है। 2०2० में कोविड-19 महामारी के कारण कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध लगा था, जिसे लेकर विपक्ष ने योगी सरकार पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद यात्रा रद्द की गई थी, लेकिन इसने सियासी तनाव को जन्म दिया। 2०22 में मांस और शराब की बिक्री पर प्रतिबंध को लेकर विवाद हुआ।
विपक्ष ने इसे धार्मिक आधार पर भेदभाव बताया, जबकि सरकार ने इसे कांवड़ियों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करने का कदम करार दिया। 2०23 में कांवड़ियों पर हेलद्घकॉप्टर से पुष्पवर्षा और यात्रा मार्गों पर विशेष सुविधाओं को लेकर सवाल उठे थे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने इसे वोट बैंक की राजनीति करार दिया। 2०24 में कांवड़ मार्ग पर दुकानों और ढाबों के लिए नेमप्लेट अनिवार्य करने का आदेश सबसे बड़ा विवाद बना। मुजफ्फरनगर में शुरू हुआ यह नियम पूरे प्रदेश में लागू किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे निजता के अधिकार का उल्लंघन मानते हुए अंतरिम रोक लगा दी थी।

सपा नेता अखिलेश यादव और असदुद्दीन ओवैसी ने इसे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने का आरोप लगाया था। बीजेपी के सहयोगी दल जदयू और कुछ मंत्री भी इस फैसले से असहमत दिखे थे। अब 2०25 में भी नेमप्लेट विवाद ने फिर से जोर पकड़ा है। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ मार्ग पर दुकानदारों के लिए नाम और लाइसेंस प्रदर्शित करने का नियम बनाया, जिसे विपक्ष ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाला कदम बताया। यानि पिछले पांच सालों से लगातार सावन में कांवड़ यात्रा से पहले ही दोनों प्रमुख दलों भाजपा व सपा में तलवारें खिंच जाती हैं। इस बार स्वामी यशवीर ने इस मुद्दे को तूल दे दी है। वह और उनकी बिग्रेड पर आरोप लग रहे है ंकि वह लोगों की पैंट उतार कर धर्म चेक कर रहे हैं।
कांवड़ यात्रा को लेकर बीजेपी पर हिदुत्व की राजनीति करने का आरोप लगता रहा है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि ये कदम कांवड़ियों की सुरक्षा और धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखकर उठाए जाते हैं। कांवड़ मार्गों पर स्थित दुकानों पर मालिक के ‘नेमप्लेट’ लगाने को लेकर एक बार फिर विवाद शुरू हो गया है। मुजफ्फरनगर में एक ढाबे पर काम करने वाले तजमुल के खुद को गोपाल बताने पर जमकर हंगामा हो रहा है। वहीं, इसे लेकर सियासत भी जारी है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं।
मेरा कहना है कि सिर्फ सावन में ही क्यों शुचिता की बात हो, पूरे साल भर क्यों नहीं अच्छा खाना खिलाया जाए। पहचान की बात सिर्फ ढाबे पर ही क्यों? क्या आप जब बड़े होटल में जाते हैं तब देखते हैं क्या कि मैनेजर कौन है, कुक कौन है और वहां काम करने वाले कौन हैं। देश चलेगा संविधान से, देश चलेगा कानून से। अगर आप ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो ये सरकार का फ़ेल्योर है। कुछ चीजें जानबूझकर समाज में छोड़ी जाती हैं। जिससे जंग चलती रहे।
सवाल इस बात है कि सुप्रीम कोर्ट की रूलिग क्या है? ढाबे का नाम कोई भी कुछ भी रख सकता है। लेकिन उसका प्रोपराइटर कौन है ये क्यों नहीं लिखा जाता है? अगर ये लिखा जाएगा तो सारा झगड़ा ही खत्म हो जाएगा। सियासी दल इसमें अपने हिसाब से सियासत करते हैं। सवाल ये है कि रीति रिवाज क्या हैं, आपकी पहचान क्या है? नाम उजागर करने का जो कानून है वो 2००6 में कांग्रेस की सरकार में आया था।

उस वक्त उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री मुलायम सिह यादव थे। यह कानून 2०11 में लागू किया गया। उस वक्त उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती थीं। इसके एक साल बाद ही अखिलेश यादव राज्य के मुख्यमंत्री बने। उस वक्त ये विवाद क्यों नहीं उठा? मेरा मानना है कि इस समय 2०27 के विधानसभा चुनाव के लिए मुस्लिम वोटों की छीना-झपटी हो रही है। जब कानून को आप राजनीतिक सुविधा के रूप में लगाते हैं तो कानून राजनीतिक रूप ले लेता है।
यही इस कानून के साथ हो रहा है। पहलगाम की घटना एक आतंकी घटना थी। उससे इस तरह के विवाद को जोड़ना कहीं से भी ठीक नहीं है। पहचान बताना विवाद का विषय नहीं है, पहचान छुपाने में ऐतराज है। यह मुद्दा सिर्फ पश्चिमी यूपी में क्यों उठता है ये भी गौर करने वाली बात है, जबकि पूरे देश के अलग-अलग इलाको में कांवड़ निकाली जाती हैं। जांच का काम सरकारी एजेंसियों का है, न कि कोई भी व्यक्ति जाए और दुकानदार से उसका नाम और कागज दिखाने को कहे। अगर कुछ लोग काम कर रहे हैं तो वो गलत हो गया और जो छद्म रूप से ये कर रहे हैं वो दया के पात्र हैं तब तो फिर हो गया? हमारे यहां हर चीज में शुचिता का ध्यान रखा जाता है।
