उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में दो दिवसीय आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह शुरू

संत वही जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो: प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित

लखनऊ। संत वह होता है जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो जाय। यह उद्गार व्यक्त किया है आचार्य सूर्य प्रसाद दीक्षित ने। प्रो दीक्षित आज लखनऊ के हिंदी संस्थान में दो दिवसीय आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह को सबोधित कर रहे थे। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह के  अवसर पर  दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हिन्दी भवन के निराला सभागार लखनऊ में  बजे से किया जा रहा है। अतिथि डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, डॉ. हरिशंकर मिश्र, डॉ. सुधाकर अदीब, डॉ. उमापति दीक्षित,  असित चतुर्वेदी का उत्तरीय द्वारा स्वागत आरपी सिंह, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी के पौत्र असित चतुर्वेदी ने कहा- मैंने 1994 में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मारक समिति का गठन किया, जिसके अन्तर्गत लखनऊ व बलिया में वर्ष में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। साहित्य अकादमी, दिल्ली ने आचार्य परशुराम चतुर्वेदी पर पुस्तक का प्रकाशन किया है। मेरा प्रयास है कि आचार्य के छूटे साहित्य का प्रकाशन ई-बुक के माध्यम से किया जाय। साथ ही एक ई-लाइब्रेरी तैयार की जाए, जिसके आचार्य के साहित्य का प्रदर्शित किया जाए। मैं आचार्य जी के ऋण को न उतार पाया हूँ और न उतार पाऊँगा। इस मंच से मैं आह्वान करता हूँ कि पूर्वजों के लिए हमें कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। इस सभागार में लगे चित्रों को देखकर मन में यह विचार आता है कितने लोग उनका स्मरण करते हैं। यह चित्र यहाँ सिर्फ इसलिए लगे हैं क्योंकि यहाँ सरस्वती के उपासक हैं। हमारे बाबा एक संत थे और संत कभी स्वर्गीय नहीं होता।

आगरा से पधारें डॉ0 उमापति दीक्षित ने कहा- मैं तुलसी का उपासक हूँ। बार-बार हम लोग संत साहित्य को याद करते हैं लेकिन उसके किसी भी वाक्य को जीवन में निर्वहन नहीं करते। रीढ़ की हड्डी की तरह अगर कोई व्यक्ति है तो उसकी कथनी और करनी में फर्क नहीं होता। संतों में जो बेबाकीपन होता है वह एक नारियल की तरह होता है, जो ऊपर कठोर और अंदर से कोमल होता है। इस तरह के वाक्य कबीर की रचनाओं में दिखायी देता है। रैदास ने जीव को परमात्मा का अंश माना है। रैदास का मानना है कि बिना अच्छे लोगों का साथ किए उन्हें आचरण को आत्मसात नहीं किया जा सकता। बिना भाव के भक्ति नहीं होती। हम किसी भी परीक्षा का त्वरित परिणाम चाहते हैं। कबीर व रैदास दोनों संत अनपढ़ थे लेकिन सतसंग का प्रभाव उन पर पड़ा। कबीर ने गुरू को गोविन्द से भी ऊपर माना है। रैदास और कबीर की तुलना की जाय तो वह कमल की तरह है जो कीचड़ में खिलता है और देवता के सर पर विराजता है। वे दोनों ऐसा समाज चाहते हैं, जिसमें भेदभाव न हो और सभी एक समान हो।

डॉ. सुधाकर अदीब ने कहा- आचार्य आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जैसे संत सदियों में कहीं दो-चार हुआ करते हैं। संत साहित्य पर जिस तरह उन्हेांने कार्य किया, उस प्रकार वह स्वयं संतों की श्रेणी में आ जाते हैं। मीरा काफी आत्मस्वाभिमानी थी। मीरा का पहला पति कृष्ण को मानती थी। विवाह के उपरान्त कुल देवी के दर्शन के लिए कहा गया, जहां पर बकरे की बलि होती थी, मीरा ने मंदिर जाने को मना कर दिया। सात वर्ष के दाम्पत्य जीवन के बाद मीरा के प्रति का स्वर्गवास हो गया। इसके उपरान्त उन्हें सति होने के लिए कहा गया, जिसका उन्होंने विरोध किया। डॉ. हरिशंकर मिश्र ने कहा – यह सत्य है कि अपने पूर्वजों के प्रति जिन लोगों का स्नेह हैं उन्हें यश कीर्ति की प्राप्ति होती है। आयु, विद्या, यश व बल चार चीजें मनुष्य को पितरों की वजह से प्राप्त होती है। हमें अपने पितरों के अवदान को रेखांकित करने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। पुस्तक लेखन में डॉ. अमिता दुबे जी ने मुझे बहुत सहयोग किया, उन्हीं के प्रयासों से यह पुस्तक लिखना सफल हो सका। आचार्य के जीवन को जानने समझने वाले बहुत लोग हैं, जो उन्हें पढ़ना चाहते हैं। मैंने आचाय्र जी के जीवन चरित्र से लेकर उनके अवदान तक को इस पुस्तक में समेटा है। आचर्य जी का व्यक्तित्व बहुत व्यापक है।

वही किसी विसंगति को स्वीकार नहीं करते थे। वह न तो भ्रमित होते थे और न ही किसी को भ्रमित करते थे। वह इस बात का ध्यान रखते थे कि जो बात कही जाए वह प्रमाण सहित हो तर्क संगत हो। बिना तर्क के वह कोई बात नहीं करते थे। बलिया से लगभग 8 किमी आगे एक ग्राम में आचार्य जी का जन्म 25 जुलाई, 1894 को हुआ। आचार्य जी एक समृद्ध परिवार से थे। उनके पिता जी चाहते थे उनका पुत्र एक पहलवान और संस्कृतज्ञ बने। लेकिन आचार्य जी का मन उसमें नहीं लगा और वही पर उन्होंने 11 वर्ष की अवस्था में पहला दोहा लिखा। उनके पिता बड़़े जमींदार थे, चार बहन और एक भाई में वह सबसे बड़े थे। आचार्य को हिन्दी, फारसी, बांग्ला, मराठी, उड़िया, उर्दू व अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान था।

डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा- आचार्य जी की 130वीं जयन्ती के अवसर पर सभी को शुभकामनाएं। आचार्य  की उदारता थी कि उन्होंने तुलसीदास जी को संत माना। जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो जाता है वह संत हो जाता है। संत शब्द का पहला प्रयोग सर जार्ज ग्रिर्यसन ने किया। रैदान सगुण व निर्गुण उपासक थे। कबीर कहते हैं कि ईश्वर सूक्ष्म रूप में घट-घट में विद्यमान है। संत निरंजन गं्रथ में आधे में सगुण और आधे में निर्गुण उपासक की बात कही गयी है। हर सम्प्रदाय में उपसम्प्रदाय बने हुए हैं। आचार्य जी पर बोध का प्रभाव था। इनके ऊपर नाथपंथ का प्रभाव था, जिससे इन्होंने अलख निरंजन का प्रभाव आया। योग साधना का प्रभाव संतों पर पड़ा है। वर्णाश्रम मोक्ष भक्ति का प्रभाव इन पर पड़ा है, तो यह कहना कि जिन संतों का आचार्य जी ने उल्लेख किया वह सनातन विरोधी थे यह गलत होगा। संत वह जो अक्रोध हो, शील हो, क्षमा देने वाला हो। कबीर स्वभाव से अक्खड़ थे खुद को शालीन रखने के लिए कहते हैं ‘ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खाऐ…..’। यही बात रैदास के बारे में कही जाती है उनके पास ज्ञान की गठरी है। रैदास कहते हैं कि मैं ऐसे देश में रहना चाहता हूँ जहाँ कोई भूखा न रहे। वे कहते हैं कि मैं श्रम को ईश्वर मानता हूँ। ये संत ज्यादातर पर्यटन करते हुए दिखायी देते हैं। सभी यह तो कहते हैं कि ईश्वर अल्लाह एक है, पर कबीर कभी नहीं कहते की दोनों एक है। वह दोनों की निंदा करते हैं। डॉ. अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उप्र हिन्दी संस्थान ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस संगोष्ठी में उपस्थित समस्त साहित्यकारों, विद्वत्तजनों एवं मीडिया कर्मियों का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की पुत्रियाँ आशा पांडे व शांति तिवारी, पौत्रवधू डॉ. कणिका चतुर्वेदी व श्रीमती चारू चतुर्वेदी, पौत्र डॉ. अजित कुमार चतुर्वेदी, सुधीर चतुर्वेदी, राजीव चतुर्वेदी, पौत्री डॉ. साधना पांडे, श्रीमती अर्चना दुबे, मालती पांडे व कांति ओझा विशेष रूप से उपस्थित थीं।यस

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