
लोकतांत्रिक कांग्रेस के संस्थापक और प्रदेश सरकार में कई बार कैबिनेट मंत्री रहे हरिशंकर तिवारी का मंगलवार देर शाम करीब साढ़े सात बजे निधन हो गया। वह 85 वर्ष के थे और लम्बे समय से अस्वस्थ्य चल रहे थे। गोरखपुर के धर्मशाला बाजार स्थित तिवारी हाता में उन्होंने अंतिम सांस ली। बड़हलगंज के टांड़ा गांव में जन्मे हरिशंकर तिवारी चिल्लूपार से छह बार विधायक रहे और कल्याण सिंह से लेकर मुलायम सिंह यादव की सरकार में अलग-अलग विभागों के मंत्री रहे। ग़ौरतलब है कि उनके निधन के समय उनके बड़े बेटे पूर्व सांसद भीष्म शंकर उर्फ कुशल तिवारी और पूर्व विधायक विनय शंकर तिवारी घर पर ही मौजूद थे।
INSIDE STORY: सत्ता की सवारी करते थे तिवारी
लखनऊ। माफिया से सफेदपोश बने हरिशंकर तिवारी हमेशा सत्ता के साथ गहरा लगाव था। सरकार कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी की रही हो या फिर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के कल्याण सिंह की। मुलायम सिंह के समाजवादी पार्टी (सपा) में भी इनकी तूती बोलती थी। वहीं बहुजन समाज पार्टी (BSP) सुप्रीमो मायावती से करीबी इनकी जगजाहिर है। तिवारी ने ही राजनीति में अपराधीकरण की शुरुआत की और उसे लम्बे समय तक क़ायम भी रखा। वह माफिया से माननीय बने और फिर मंत्री भी बन गए। इसी दरमियान उन्हें शेर-ए-पूर्वांचल का खिताब भी मिला था। साल 1996 से जिसकी भी सरकार बनी वह सभी सरकारों में मंत्री बने। लेकिन वर्ष 2007 से उनकी सियासत ढलान पर आई और साल 2012 में उन्होंने राजनीति ने संन्यास ले लिया।
सिकरीगंज के टांडा गाँव से निकलकर गोरखपुर में पढ़ने के लिए किराए के कमरे में रहने वाले हरिशंकर ने समय के साथ गोरखपुर के पॉश इलाके जटाशंकर मोहल्ले में किले जैसा घर बनाया, जिसे वह हाता कहते रहे। तीन दशकों तक इसी हाते से वह पूरे सूबे की राजनीति तय करते थे। नरेश अग्रवाल समेत सूबे के कई बड़े नेता इनके इशारे पर दल बदल लिया करते थे और तिवारी सरकार की काबीना में प्रवेश कर जाते थे।
साल 1996 में कल्याण सिंह की सरकार बनी तो वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री बने। वर्ष 2000 में स्टाम्प रजिस्ट्रेशन मंत्री हो गए और वर्ष 2001 में जब राजनाथ सिंह यूपी के वजीर-ए-आला बने, तब भी यह मंत्रालय उनके पास था। साल 2002 में मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो एक मंत्रालय हरिशंकर तिवारी को मिला। एक साल बाद यूपी की राजनीति ने बड़ी करवट बदली। वर्ष 2003 में सपा की सरकार बनी तो तिवारी ने भी पासा पलटा और काबीना मंत्री बन गए।
यूँ कहें तो हरिशंकर तिवारी का जलवा पूर्वांचल से लेकर बिहार, झारखंड, उड़ीसा और कोलकाता तक पसरा हुआ था। कहानी को समझने के लिए करीब 50 साल पीछे चलना पड़ेगा। वह 1970 का दशक था। पटना यूनिवर्सिटी में चल रहे जेपी आंदोलन की आग गोरखपुर विश्वविद्यालय तक पहुंच चुकी थी। छात्रों के नारे राजनीति में नई बुनियाद स्थापित कर रहे थे। उस वक्त विश्वविद्यालय में दो गुट बन गए। पहले गुट की रहनुमाई हरिशंकर तिवारी कर रहे थे तो दूसरा गुट बलवंत सिंह के पीछे चल रहा था। इसी दौरान बलंवत सिंह को वीरेंद्र प्रताप शाही मिले तो उनकी शक्ति दोगुनी हो गई। लेकिन दोनों पक्षों की अदावत चलती रही।
30 अगस्त 1979, लखनऊ और गोरखपुर के छात्र संघ अध्यक्ष रह चुके कौड़ीराम के युवा विधायक रविंद्र सिंह को गोली मार दी गई। उस वक्त सरकार में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष सत्यप्रकाश मालवीय मंत्री थे। उनके मौत के बाद वीरेंद्र शाही ठाकुरों ने नए रहनुमा बनकर सामने आए और बड़े नेता बन बैठे। कालांतर में वीरेंद्र शाही महाराजगंज के नौतनवा से विधायक बने और हरिशंकर तिवारी गोरखपुर के चिल्लूपार विधानसभा से सदन पहुँचे। आलम यह था कि लोग अपनी समस्याओं को थाने या कचहरी की बजाय इनके दरबार में पहुंचते और तुरंत निपटारा हो जाता था।
जेल गए और वहीं से जीते चुनाव
साल 1985 में हरिशंकर तिवारी जेल में बंद थे। माफिया से माननीय बनने का सफ़र इसी साल शुरू हुआ। उन्होंने चिल्लूपार सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर नामांकन कर दिया। नतीजा आया तो हरिशंकर ने कांग्रेस के मार्कंडेय चंद को 21 हजार 728 वोटों से हरा दिया। देश में ये पहला मौका था जब कोई जेल के अंदर रहते हुए चुनाव जीता हो।
एक पत्रकार ने खत्म कर डाली सियासी विरासत
कभी गोरखपुर का चिल्लूपार उनका अभेद्य गढ़ हुआ करता था। लेकिन साल 2007 में बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे पूर्व पत्रकार राजेश त्रिपाठी ने हरिशंकर तिवारी को छह हजार 933 वोटों से हरा दिया। वर्ष 2012 में वह फिर से चुनाव मैदान में उतरे। यहां फिर से राजेश त्रिपाठी ने उन्हें पटखनी दे मारी। तिवारी चौथे स्थान पर पहुंच गए तब उन्होंने तय किया कि अब चुनाव में नहीं उतरेंगे।