
मुफलिसी में जी रहे हैैं रंगकर्मी दिनेश गिरी, सरकार भी है उदासीन
महराजगंज। आज विश्व रंगमंच दिवस है और यह दिन 1961 से ही मनाया जा रहा है। मकसद है रंगमंच के कर्मियों के प्रति जागरूकता लाना और इस खास दिन पर उनके कृतित्व से जो प्रभाव पैदा हो रहा है या हो चुका है, उस पर चर्चा करना। लेकिन समय के पहिये में इनका दिन कभी ऐसा नहीं आया, जिसमें ये खुद को समाज में और सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहतर स्तर पर रख सकें। बात समाज के सरोकार की हो तो कई नाटक और इसे मंच पर उतारने वाले हुनरमंद कलाकार दिनेश गिरी उर्फ पेड़ बाबा की हैं। लेकिन वैसे कलाकार अब विरले हैं या हैं ही नहीं, जिन्हें समाज में एक बेहतर ओहदे भी मिल सके।
प्रस्तुति भी आसान नहीं
महराजगंज जनपद के पिपरिया करंजहा गांव में जन्मे दिनेश गिरी उर्फ पेड़ बाबा बचपन से ही नाटक और रंगमंच की दुनिया की तरफ मुड़ गए। उमा माहेश्वर गोरक्ष प्रांत रामलीला समिति जैसे नाट्य मंच की स्थापना कर पूर्वांचल ही नहीं देश के तमाम प्रदेशों और नेपाल के तमाम जिलों में अपनी रंगधर्मिता का लोहा मनवाने वाले दिनेश गिरी उर्फ पेड़ बाबा ने कभी अपने आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए काम नहीं किया। हमेशा समाज को नई दिशा देकर सामाजिक चेतना फैलाने तथा लोगों को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने वाले दिनेश गिरी कहते है, “रंगमंच और नाटक मेरा पहला प्यार और जुनून है।”
अपना पूरा जीवन रंगमंच के माध्यम से लोगों के बीच मनोरंजन के माध्यम से समाजिकता, आपसी प्रेम, अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाले दिनेश गिरी उर्फ पेड़ बाबा की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इसके कारण उन्हें नाटकों के मंचन में भी थोड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है। जिसकी वजह से प्रस्तुति में परेशानी आती है। उन्होंनें रंगकर्मियों की आर्थिक स्थिति का जिक्र करते हुए कहा कि उनके नाट्य संस्थान को आज तक कोई सरकारी सहयोग या अनुदान तक नहीं मिला है। उन्हें इस काम से जुड़े रहने के लिए कोई सरकारी सपोर्ट सिस्टम भी नहीं मिल पाता है। करीब तीन चार साल में एक बार होने वाले महराजगंज महोत्सव में भी पहुंच न बना पाने की वजह से उनको काम नहीं दिया गया जिसकी वजह से कई कलाकार मंच पर काम न मिलने से वंचित रहे।
स्कूल-कॉलेजों में नहीं होती अब कोई रंगमंचीय गतिविधि
दिनेश गिरी अपने संकल्प और संघर्षों को याद करते हुए कहते है “रंगमंच मानव समुदाय के जीवन, संघर्ष और सौन्दर्यबोध की अभिव्यक्ति का आदिम कला-रूप है और यह पृथ्वी पर आखिरी मानव समूह के जीवित रहते मौजूद रहनेवाली कला-विधा है।” वे आगे जोड़ते है, “हर बड़े शहरों से लगायत गांव जवार में रंगकर्मियों की टोलियां है और ये समूह में तैयारी करते और एक -दूसरे के उत्साह को बढ़ाते हुए अपने हुनर को जिंदा रखते हैं। लेकिन हाल के दिनों में यह देखा गया है कि इसे पेशा के तौर पर स्कूल- कॉलेजों में गतिविधि के रूप में भी अब शामिल नहीं किया जा रहा है। सांस्कृतिक मंचों पर केवल सरस्वती वंदना, समूह गान, एकल गायन या नृत्य प्रस्तुति से ही यह पूरा हो चुका समझ लिया जाता है। जबकि यह इससे कहीं आगे है।
सिर्फ जुनून से जिंदा है रंगकर्म : दिनेश गिरी
दिनेश गिरी अपने दर्द को याद करते हुए भावुक होते हुए कहते हैं, “रंगकर्म, नाटक करने वालों को कौन प्रोत्साहित करता है ? आखिर क्या है जिससे रंगकर्मी अपना बेहतर प्रस्तुति देने लिए उत्साहित रहते हैं?”इस बारे में बात करते हुए वह भावुक होते हुए बताते हैं कि यह दुर्भाग्य है कि समाज और सरकारें मनुष्य की आत्मिक उन्नति में सहायक इस आदिम कला के विकास के प्रति उदासीन रही हैं। हम तो सिर्फ अपने जुनून से जिंदा है। रंगमंच को स्कूल-कॉलेजों में सामुदायिक गतिविधि में शामिल करने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास का अभाव है। आज रंगकर्मी बिना किसी समर्थन के अपने जुनून और रंगमंच के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण इस क्षेत्र में जिंदा है और सक्रिय हैं। आज ज़रूरत है कि समाज और सरकार दोनों ही रंगकर्म को एक सम्मानित पेशा के रूप में मान्यता देते हुए, रंगकर्मियों की ओर समर्थन का हाथ बढ़ाएं।