संभव नहीं होगी शिक्षा और चिकित्सा मुफ्त…

डॉ. ओपी मिश्र


इस साल जनवरी से अक्टूबर के बीच जापान में 6 लाख एक सौ बच्चों का जन्म हुआ जबकि इसी पीरियड में हम देशवासियों ने 2 करोड़ 62 लाख बच्चे पैदा कर दिए । इन आंकड़ों के आधार पर हम कह सकते हैं कि हमने केवल दस महीने में 44 जापान पैदा कर दिए। बच्चों के जन्म देने की यही स्पीड अगर जारी रही तो सरकार भले ही किसी की हो लेकिन शिक्षा और इलाज उसी को मिल पाएगा जिसकी जेब में पैसा होगा। यह कड़वा सच भले ही आपको इस समय बुरा लग रहा हो और आप यह भी मन ही मन कह रहे होंगे कि अगर ऊपर वाला दे रहा है।

तो रोकने वाले हम कौन होते हैं? लेकिन अगर इस बात की तह में आप जाएंगे तो पता चलेगा कि आने वाला वक्त कितनी समस्याएं लेकर आने को तैयार बैठा है। कोरोना काल का दंश हम सभी देशवासी झेल भी चुके हैं और देख भी चुके हैं कि किस तरह सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी। किसी के हाथ में कुछ नहीं बचा था सरकार चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी क्योंकि संसाधन सीमित और रोगियों की संख्या असीमित थी । कल्पना कीजिए कि अगर आबादी कम होती तो लोगों को सारी चिकित्सा सुविधाएं आसानी से मिल सकती थी लेकिन ज्यादा आबादी और सीमित संसाधनों ने विकास की गति को रोक कर रख दिया था। सरकार भले ही कहे कि कोरोना में किसी की मौत नहीं हुई लेकिन हकीकत यह है कि सब कुछ राम भरोसे चल रहा था। और लोग मर रहे थे।

इसके बावजूद हम ना तो चेत रहे हैं और ना ही समझ रहे हैं बल्कि ऊपर वाले का ‘प्रसाद’ समझकर ग्रहण कर रहे हैं। मैं इस लेख के माध्यम से ‘जनसंख्या नियंत्रण कानून’ की मेरिट-डिमैरिट पर चर्चा नहीं करना चाहता हूं लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि अगर हमने समय रहते आबादी के बढ़ने पर अंकुश नहीं लगाया तो वह दिन दूर नहीं जब पैसे के अभाव में हम चाह कर भी ‘अपनों’ को बचा नहीं पाएंगे। क्योंकि शिक्षा और चिकित्सा दोनों दिन प्रतिदिन महंगी होती जा रही है। ऐसे में हम ना तो अपने बच्चों को कुपोषण या अन्य बीमारियों से बचा पाएंगे और ना ही उसे अच्छा शिक्षित नागरिक बना पाएंगे। अब समय आ गया है कि हमें हर बात के लिए सरकार का मुंह देखना बंद करना होगा क्योंकि सरकार तो ऐसे ही कर्ज के बोझ में दबती जा रही है? कब तक कर्ज लेकर ‘घी’ खाएगी? कर्जा देने वालों का जब दबाव पड़ेगा तो हमें मूलधन के साथ ब्याज भी देना होगा जिसका असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

वैसे भी खजाने का सोना दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है। डॉलर के मुकाबले हमारा पैसा नीचे गिरता जा रहा है। महंगाई तेजी से बढ़ रही है लेकिन लोगों की आमदनी कम हो रही है। और जब आमदनी कम होगी तो स्वाभाविक है कि खरीदारी कम होगी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार चालू वित्त वर्ष की जुलाई- सितंबर तिमाही में अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ कर 6.3% पर आ गई है। जबकि अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 13.5 फिसदी थी । हम सब नित समाचार पत्रों में पढ़ते हैं न्यूज़ चैनलों पर देखते हैं कि अस्पतालों में मांग के अनुरूप दवाओं का अभाव है। यह अभाव बढ़ती आबादी के चलते अगर इसी तरह बढ़ता रहा तो एक दिन वह भी आएगा। जब ‘प्रधानमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना’ भी फ्लॉप हो जाएगी।

एक मोहक फिल्मी अंदाज! आशा पारेख का!!

क्योंकि उसके लिए भी तो सरकार के पास पैसा चाहिए। सुरसा की तरह बढ़ती हुई आबादी में वही लोग अपने बच्चों को शिक्षित और योग्य बना पाएंगे। जिनके टेंट में पैसे होंगे वरना सरकार तो केवल ‘साक्षर’ बनाने तक ही शायद सीमित रह पाएगी । राजनीतिक दल और सरकारें अपने चुनावी लाभ तथा सत्ता बरकरार रखने के लिए तमाम तरह की रेवडियां बांटती हैं रेवडियों को खाकर हम खुश होते हैं, तालियां पीटते हैं, उन्हें वोट भी देते हैं और सरकार भी बनवा देते हैं। लेकिन क्या कभी यह सोचने की जहमत किसी ने उठाई है कि विकास के लिए टैक्स देने वालों का यह पैसा किस बेरहमी से खर्च किया जा रहा है। अगर यही पैसा शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए खर्च किया जाए स्वस्थ्य और शिक्षित नागरिक तैयार हो सकते हैं।

लेकिन सरकार को तो रेवडियां बाटनी है ताकि सत्ता प्राप्त हो सके और यदि प्राप्त हो गई तो बरकरार रहे। आज अगर देश में बेरोजगारी बढ़ी है तो उसका भी कारण आबादी है। क्योंकि सरकार चाह कर भी सभी को सरकारी नौकरी दे नहीं सकती जबकि भारत के प्रत्येक नवजवान को सरकारी नौकरी ही चाहिए । जानते हैं क्यों? क्योंकि उसके पास डिग्री तो है लेकिन स्किल नहीं। जबकि प्राइवेट सेक्टर में को डिग्री नहीं स्किल चाहिए । इसके ना होने के कारण वे कोई ‘स्टार्टअप’ भी नहीं शुरू कर सकते हैं। ऐसे में अगर मैं यह कहूं कि आने वाले दिन बहुत ही अधिक भयावह होने वाले हैं तो कतई गलत नहीं होगा । लेकिन इसके लिए जितना दोषी सरकार है उससे कम दोषी हम भी नहीं हैं। हम अगर इसी तरह अबादी बढ़ाते रहे तो एक दिन सरकार भी अपने हाथ खड़े कर देगी।

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