हैदराबाद अभी निजामशाही से मुक्त हुआ नहीं!

के. विक्रम राव


हैदराबाद ने फिर इतिहास रचा। गत रविवार (17 सितम्बर 2022) वहां एक ही दिन (आजादी के पर्व पर) दो समारोह हुये। एक था नूतन नगर सिकन्दराबाद के परेड ग्राउण्ड पर ‘‘मुक्ति दिवस‘‘ जहां भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने ध्वजारोहण किया। बस दस किलोमीटर दूर पुराना शहर है हैदराबाद, जहां तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुख्यमंत्री, के. चन्द्रशेखर राव, ने जलसा किया। उन्हें अपने सियासी यार सांसद असदुद्दीन ओवैसी, मुस्लिम मजलिस के अध्यक्ष, का समर्थन प्राप्त हैं। मत विषमता का आधार शाब्दिक था। भारतवासी इसे निजामशाही से मुक्ति मानते है। के. चन्द्रशेखर राव इसे भारतीय संघ में ‘‘एकीकरण‘‘ मानते है। अर्थात उनकी दृष्टि में निजाम नेक शासक था।

हालांकि इतिहास गवाह है कि यह निजाम, रूस्तमे दौरां, अरस्तुये जमां, वलममालिक मीर उस्मान अली खां बहादुर ने (उनके प्रधानमंत्री कासिम रिजवी ने) निजामशाही के हैदराबाद में हिन्दुओं पर बेहद जुल्म ढाया। रजाकार संस्था बनायी। उसका मुख्य काम था हिन्दुओं का कत्ल, निजाम को सत्ता पर बनाये रखना। बस भारत में हैदराबाद का विलय न होने देना। मजलिस का वही सदर था। कासिम रिजवी का सपना था कि हैदराबाद पाकिस्तान का ही सूबा रहेगा। उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री लाईक अली ने उत्तर भारत में परवरिश पायी, अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में पढ़ा। लाटूर (अब मराठवाडा) में दफन हुआ। उसी के वंशज है असदुद्दीन ओवैसी।

लाइक अली खां (1911 से 1948 तक) वाले सैंतीस साल के राज में हिन्दुओं का दमन वीभत्स था। उनके राज में धर्म की आजादी की दशा अत्यंत दारूण थी। आर्य समाज ने जनान्दोलन चलाया। हजारों हिन्दू मतांतरण और हिंसा के शिकार हो रहे थे। निजाम के प्रधानमंत्री मीर लाईक अली तो पाकिस्तान भाग गये। उनके ही राज से इस हिन्दु-बहुल रियासत में मुस्लिम आतंकवादी रजाकार (स्वयंसेवक) ने हजारों हिन्दुओं को मार डाला था। इन आतंकियों का नेता रहा, सैय्यद मोहम्मद काजिम रिजवी। वह भी भागकर कराची में बसा। इस शैतान की दस संताने थी (पांच बेटे और पांच बेटियों)। यह लखनऊ में जन्मा था।

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एक प्रधानमंत्री थे नवाब मोहम्मद अहमद सईद खान छतारी (बुलंदशहर जनपद) में उनकी रियासत थी। वे भी निजाम के प्रधानमंत्री थे। भारत से शांति पूर्ण समझौता चाहते थे। उनके निजी रिश्ते रहे जवाहरलाल नेहरू और उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित से। स्वतंत्रता के प्रथम वर्ष 1947 में तो सालभर निजाम ने लार्ड माउंटबेटन को वार्ता में उलझाये रखा। समय गुजरता जा रहा था। तब 21 जून 1948 यह गवर्नर जनरल त्यागपत्र देकर लंदन चले गये थे। वार्ता के बहाने को जानकर गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद की मुक्ति के लिये ‘‘ऑपरेशन पोलो‘‘ की योजना बनायी। भारतीय सेना के मेजर जनरल जयंतनाथ चौधरी के कमाण्ड में हैदराबाद सेना भेजी। महीना सितम्बर 1948 का था। उधर तभी पर्वतीय नगरी क्वेटा में अपनी बहन फातिमा के साथ मोहम्मद अली जिन्ना गये थे। वे अंतिम सांसे गिन रहे थे। फेफड़ांे ने टीबी-ग्रसित होकर काम बंद कर दिया था।

वे वहां उपचार के लिये गये थे। भारतीय सेना द्वारा हैदराबाद के मुक्ति-अभियान के विरूद्ध क्या कर पाते ? खुद उनकी सल्तनत इस्लामी पाकिस्तान संकट से ग्रस्त था। हैदराबाद से जिन्ना वह धोखा नहीं कर सके जो उन्होंने कश्मीर में किया था। हिमालयी घाटी को तो भारतीय सेना ने पाकिस्तानी कबाइली घुसपैठियों से बचा लिया। मगर कराची से हैदराबाद दूरी के कारण जिन्ना कुछ भी कर नहीं पाये। निजामशाही दुनिया में सबसे बड़ी तथा अमीर रियासत थी। अजंता और एलोरा उसी के राज में थे। गोलकोण्डा के हीरो की खदानों के कारण निजाम उस वक्त विश्व का सबसे धनी व्यक्ति था। मगर अपनी योजना से सरदार पटेल ने हैदराबाद को भारत के सीने पर खंजर नहीं बनने दिया।

हैं क्या ऐसे भारतीय जो कश्मीर को अपना नहीं मानते?

यहां गौरतलब विषय यह है कि तेलंगाना के नये निजाम (मुख्यमंत्री) कल्वकुंटल चन्द्रशेखर राव ने एक ही भाषा (तेलुगु) बोलनेवालों को दो राज्यों में विभाजित कर दिया। केवल राजसी महात्वाकांक्षा के खातिर। इसी लक्ष्य को हथियाने के लिये वे अनशन द्वारा विशालांध्र को तोड़ने में कामयाब रहे। आज उनके करीबी हैं मजलिसे इतिहादे मुसलमीन के नायक ओवैसी बंधु। असदुद्दीन और अनुज अकबर, जो पुराने निजामशाही की जागीर पाने की तमन्ना रखते हैं। इसीलिए राजधानी दो अलग-अलग समारोह हुये। ओवैसी मानते है कि भारतीय सेना द्वारा विलय कराया गया हैं, (जो सितम्बर 1948 में हुआ) न कि जनता द्वारा। चन्द महीनों बाद तेलंगाना विधानसभा का चुनाव है। वहां के तेलुगुभाषियों को तय करना होगा कि निजाम से वे स्वतंत्र हुये थे। क्या अब उसी गुलामवंश की वे वापसी चाहते है?

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