- क्षेत्र में उनकी सक्रियता कितना असर डालेगी यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न!
- फरेंदा और नौतनवां दो विधान सभा क्षेत्रों पर है चुनाव लड़ाने की तैयारी
उमेश चन्द्र त्रिपाठी
महराजगंज। पूर्वांचल की राजनीति में दो दशक तक प्रभावी दखल रखने वाले कवियत्री मधुमिता शुक्ला की हत्या के दोषी पूर्व मंत्री अमर मणि त्रिपाठी अपनी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी के साथ रिहा हो गए हैं। कवयित्री मधुमिता की हत्या के मामले में 2007 से आजीवन कारावास की सजा काट रहे पति-पत्नी की बची सजा माफ कर दी गई है। इसके साथ ही यह आकलन तेज हो गया है कि जेल से बाहर अमर मणि त्रिपाठी सियासत के भीतर कितना असर डालने में संभव होंगे? सजायाफ्ता होने के चलते वह राजनीति की मुख्यधारा में आ नहीं सकते, इसलिए अपने परिवार के लिए जमीन तलाशने की कवायद शुरू कर दिए हैं। हालांकि, उनकी यह सक्रियता किसको फायदा पहुंचाएगी लोगों की नजरें इस पर भी हैं। बता दें कि अमरमणि त्रिपाठी ऐसे समय जेल से बाहर आए हैं, जब पूर्वांचल के बाहुबली ब्राह्मण चेहरे हरिशंकर तिवारी का निधन हो चुका है। हरिशंकर तिवारी के छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी फिलहाल सपा में है और 2022 का विधानसभा चुनाव हार गए थे। बड़े बेटे भीष्म शंकर तिवारी 2019 में संतकबीरनगर से एसपी-बीएसपी गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा लड़े थे और हार गए थे। दोनों ही फिलहाल कद की चुनौती से जूझ रहे हैं। वहीं, अमरमणि भी हरिशंकर तिवारी की ही छत्रछाया में सियासत में आए थे।

ढाई दशक से अधिक की सक्रिय राजनीति में अमर मणि त्रिपाठी का दखल और असर हर दल में रहा। 1980 में चुनाव के दौरान निर्दल प्रत्याशी घुरहू सिंह के निधन के बाद चुनाव निरस्त हो गया था। पुनः 1981 में हुए उपचुनाव में हरिशंकर तिवारी ने अमर मणि त्रिपाठी को बाहुबली वीरेंद्र प्रताप शाही के खिलाफ चुनाव लड़ाया था, लेकिन जीत नहीं मिली। वीरेंद्र प्रताप शाही पहली बार 1981से 1984 तक विधायक रहे। इसी बीच नौतनवां निवासी सरदार अजीत सिंह की हत्या हो गई जिसका आरोप हरिशंकर तिवारी के पुत्र भीष्म शंकर तिवारी पर लगा। चूंकि सरदार अजीत सिंह वीरेंद्र प्रताप शाही के बेहद करीबी थे तो वीरेंद्र शाही ने इस मामले को राष्ट्रपति तक पहुंचाया। इसी बीच पुनः चुनाव की घोषणा हुई और फिर अमर मणि त्रिपाठी और वीरेंद्र प्रताप शाही आमने-सामने मैदान में उतर गए। दूसरी बार भी वीरेंद्र प्रताप शाही ने अमर मणि त्रिपाठी को पटकनी दे दी। लेकिन दो बार चुनाव हारने के बाद भी अमर मणि त्रिपाठी का हौसला खत्म नहीं हुआ वे लगातार क्षेत्र की जनता से जुड़े रहे। जब 1989 का चुनाव आया तो वीरेंद्र प्रताप शाही लक्ष्मीपुर विधानसभा क्षेत्र को अलविदा कर गोरखपुर चले गए। अब उनके जगह पर अमर मणि त्रिपाठी के खिलाफ वीरेंद्र प्रताप शाही के ही दाहिने हाथ कुंवर अखिलेश सिंह मैदान में आ गए।

साल था 1989 जिसमें अखिलेश सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा और अमर मणि त्रिपाठी लक्ष्मीपुर विधानसभा से पहली बार कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। इसके बाद अखिलेश सिंह ने साल 1991और 1993 में सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और अमर मणि त्रिपाठी को दोनों बार हरा दिया। अमर मणि त्रिपाठी 1996 में कांग्रेस के टिकट पर दोबारा विधायक बने और कल्याण सिंह के समर्थन में आ गए। इसके बाद लोकतांत्रिक कांग्रेस का हिस्सा बन गए। इसका इनाम उन्हें बीजेपी सरकार में मंत्री के तौर पर मिला। हालांकि 2001 में अमर मणि त्रिपाठी को बस्ती के एक व्यवसायी के बेटे राहुल मद्धेशिया के अपहरण में नाम आने के बाद मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया। 2002 में अमर मणि त्रिपाठी बीएसपी से चुनाव लड़े और तीसरी बार जीते। अगले साल ही मधुमिता हत्याकांड में नाम आने के बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। इस बीच सरकार की बागडोर मुलायम के हाथ आई और उन्होंने सपा का दामन थाम लिया। 2007 में जेल में रहते हुए वह सपा से विधायक बने। हालांकि, इसके बाद कवियत्री मधुमिता शुक्ला की हत्या में उन्हें आजीवन कारावास की सजा हो गयी। बता दें कि अमर मणि ने कारावास के दौरान लंबा वक्त गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज में बिताया है। इसलिए, उनका सियासी खेल पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ। वे मेडिकल कॉलेज में रहकर भी लगातार क्षेत्र की जनता के संपर्क में बने रहे।

लेकिन जब 2012 का चुनाव आया तो उन्होंने सपा के टिकट पर अपने पुत्र अमन मणि त्रिपाठी को नौतनवां विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ाया था लेकिन इस बार कांग्रेस के कुंवर कौशल उर्फ मुन्ना सिंह से चुनाव हार गए। हालांकि, 2017 में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर अमन मणि त्रिपाठी को जीत मिली और पहली बार विधायक बने। लेकिन 2022 में उनकी सीट बरकरार नहीं रह पाई। भाजपा-निषाद गठबंधन पार्टी के प्रत्याशी ऋषि त्रिपाठी पहली बार विधायक बने। इस चुनाव में सपा के टिकट पर लड़ रहे कुंवर कौशल उर्फ मुन्ना सिंह करीब 78 हजार मत पाकर दूसरे और बसपा प्रत्याशी अमन मणि त्रिपाठी 47 हजार मत पाकर तीसरे नंबर पर रहे। ऋषि त्रिपाठी 90 हजार मत पाकर पहली बार विधायक बने। यही नहीं अमर मणि की बेटी को भी 2019 में कांग्रेस ने महाराजगंज से लोकसभा का टिकट दिया था, हालांकि बाद में तमाम विरोध के बाद उनका टिकट बदल दिया गया। ऐसे में सियासी प्रासंगिकता पूरी तरह खत्म नहीं हुई।
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पूर्वांचल में ब्राह्मण बहुल सीट से जीतकर जातीय छत्रप के तौर पर उभरे अमर मणि त्रिपाठी के लिए फिलहाल पुरानी जमीन पाना अब उतना आसान नहीं है। फिर भी नौतनवां और फरेंदा दोनों विधानसभा क्षेत्र में वह कड़ी मेहनत कर पुनः स्थापित होना चाहते हैं। अमर मणि त्रिपाठी ब्राह्मण महिला की ही हत्या में सजायाफ्ता रहे हैं। विपक्ष की राजनीति का एजेंडा बदल चुका है। बीजेपी ने पूर्वांचल में पहले ही ब्राह्मण चेहरे तैयार करने शुरू कर दिए हैं, दूसरे लोकसभा के चुनाव में हिंदुत्व, विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दों के साथ बीजेपी को उनको लुभाने के लिए किसी और की जरूरत भी नहीं दिखती। ऐसे में अमर मणि त्रिपाठी के सामने एक बड़ी चुनौती बेटे के कंधे पर हाथ रखकर फिर से सियासत में खड़े होने की है। पत्नी के हत्या के आरोप में जेल जा चुके बेटे अमन मणि त्रिपाठी का भी दामन पूरी तरह से दागदार है। सीधे तौर पर जनता का साथ तलाशना दोनों के लिए अभी टेढ़ी खीर ही है। हालांकि, जेल से बाहर निकलने के लिए तैयार की गई भूमिका का नफा-नुकसान क्या होगा किसी न किसी के खाते में तो जोड़े ही जाएगा। फिलहाल आन वाले 2027 के विधान सभा चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है? वैसे उनके दौरे के दौरान क्षेत्रीय जनता की जो भीड़ उनसे मिलने आ रही है निश्चित तौर पर उनके लिए यह शुभ संकेत माना जा रहा है।
