लोकशाही बना रहे मणिपुर! नेहरू-युगीन अजायबघर नहीं!!

के. विक्रम राव 

मणिपुर घाटी में रिसते लहू की छीटों से ढाई हजार किलोमीटर दूर संसद भवन अभी लाल नहीं हो पाया ! कारण ? वहां लोग पड़ताल कर रहे हैं कि कितना रक्त मैतेई का है, कितना चिन-कूकी का, कितना नगा का ? मणिपुर का नाम कौन ले रहा है ? मगर राजधानी इंफाल में एक महाराज हैं नोंगथंबन बीरेन सिंह। दुबारा मुख्यमंत्री बने हैं। अबकी भाजपा के। इसके पहले सोनिया-कांग्रेस (2007) के थे। उसके पूर्व वे उग्रवादी वामपंथी थे। उनकी पार्टी का नाम बड़ा लंबा था : लोकतांत्रिक क्रांतिकारी जनवादी पार्टी (2002 में)। फिर सोनिया-कांग्रेस में भर्ती होते ही उन्होंने बुजुर्ग कांग्रेसी मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह को धोबी पाटा मारा। बाद में भारतीय जनता पार्टी का दामन पकड़ा। वहां भाजपाई मददगार विश्वजीत सिंह को ही काटा। उनको गिरा कर खुद मुख्यमंत्री बने। बीरेन सिंह फुटबॉल खेलते रहे। डूरंड कप के लिए भी खेले थे। फिर सीमा सुरक्षा बल में जवान चयनित हुए। बीच में छोडकर पत्रकार बन गए। अपना भाषायी दैनिक “नाहारोल्गी थाउडांग” दैनिक (1992) में प्रकाशित किया। एक दशक तक संपादक रहे। तभी हमारे इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) की ऑल-मणिपुर श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के अध्यक्ष रहे।

इतना सब होने के बाद भी बीरेन सिंह रहे वही पैदाइशी मैतेई। अर्थात कूकी जाति के शत्रु। हालांकि उनका नारा था : सबका साथ, सबका प्रयास वाला ! यदि अटल बिहारी वाजपेयी आज होते तो बीरेन सिंह को राजधर्म का सबक सिखाते। इस दफा राजनीति, जनजाति, भूगोल और इतिहास के साथ तो इस समूचे अराजक माहौल को अनिष्टकारी बनाने में न्यायतंत्र भी कारण रहा। यह राय है भारत के प्रधान न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ की। उन्होंने मणिपुर हाई कोर्ट के उस निर्णय को निरस्त कर दिया था। जिसमें बहुसंख्यक मैतेयी आदिवासी को जनजाति सूची में शामिल करने का निर्देश था। मणिपुर हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन के आदेश (3 मई 2023) के बाद से मणिपुर में असीम अशांति फैली। सुप्रीम कोर्ट ने (17 मई को) मणिपुर हाई कोर्ट द्वारा राज्य सरकार को अनुसूचित जनजातियों की सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने पर विचार करने के निर्देश के खिलाफ “कड़ी टिप्पणी” की थी।

खण्डपीठ की राय थी : “हाईकोर्ट ने अपने फैसले में तीन त्रुटियां की थी : प्रथम : यह निर्देश है कि मेतई समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करे, यह अनावश्यक था। यह निष्कर्ष निकालना है कि मेतइयों को शामिल करने का मुद्दा लगभग 10 वर्षों से लंबित है, सत्य नहीं है। यह कहना कि मेइती भी जनजाति तथ्यहीन ही हैं। मणिपुर में अल्पसंख्यक जनजाति के रक्तस्राव के एक प्रकरण का उल्लेख हो। यहां के जिला सेनापति के साइकुल उपखंड के ग्राम माफाऊ के सबइंस्पेक्टर पोटिसेंट गाइट सीमा सुरक्षा बल में जम्मू कश्मीर के रजौरी सेक्टर में तैनात थे। इस्लामी पाकिस्तान के मुस्लिम मुजाहिदीनों ने उन्हें मार डाला। मगर आखिरी सांस लेने के पूर्व अपने कई सिपाही-साथियों को उन्होंने मौत से बचाया। उनके पराक्रमी कृति पर भारत सरकार ने उन्हें कीर्तिचक्र से नवाजा। सीमा सुरक्षा बल के मुखिया नरिंदर सिंह जामवाल ने श्रद्धांजलि में कहा था : “शहीद सब इंस्पेक्टर पी. गुइटे एक वीर और ईमानदार सिपाही थे। उनके सर्वोच्च बलिदान और कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा।” गुइटे के पार्थिव शरीर को हवाई मार्ग से इम्फाल और उसके बाद उनके पैतृक गांव विल्ल-म्चुकुकी (मणिपुर) भेजा गया, जहां उनका अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया गया।

अब इस शहादत के परिवेश में बात उठाई जाए जो कवि प्रदीप ने “आंख में भर लो पानी” वाले अमर गीत में उठाए थे। “जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो कुर्बानी। कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गुरखा, कोई मदरासी। सरहद पर मरने वाला हर वीर था भारतवासी।” किसी ने नहीं पूछा था कि रजौरी में शहीद हुए इस मणिपुरी जवान की नस्ल, जाति क्या थी ? बस इतना याद किया कि “इस सैनिक का खून मणिपुरी का नहीं, “वो खून था हिंदुस्तानी”। मगर स्थानीय गुटों की नजर में वह सीमा सुरक्षा बल का जवान पोटिसेंट गाइट अल्पसंख्यक कूकी जनजाति का था। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह वाली मैतेई जनजाति का नहीं। तो क्या वह खून नहीं पानी माना जाएगा ? गत दशकों में कूकी प्रदेश की मांग उठी थी क्योंकि बहुमत मैतेई के शासन में रहना सजाये-मौत के सदृश हैं। उनकी आशा तब बंधी थी जब एक ही भाषा तेलुगु बोलने वालों के आंध्र प्रदेश को तोड़कर तेलंगाना बनाया था, सरदार मनमोहन सिंह की सरकार ने। कूकी जनजाति का नाता असम के अहोम राजवंश से रहा है। जिसमें भौंगकौंग, समलौंगथा, निंगथौ आदि महत्वपूर्ण राजा हुए। असम और अराकान के मध्य कूकी लुशाई और काचार क्षेत्र में रहते थे।

अब नरेंद्र मोदी सरकार से एक राष्ट्रवादी अनुरोध है। जवाहरलाल नेहरू सरकार ने सीमावर्ती राज्यों को, विशेषकर पूर्वोत्तर इलाकों को अजायबघर बनाकर रखा था। उन्हें भारतीय सेना के हवाले कर दिया था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर जेल में शहादत के बाद प्रयास चला कि इस शेख-अधिकृत कश्मीर प्रदेश को भारत का भूभाग बनाया जाए। बड़ी महंगी कीमत भारत ने चुकाई। ठीक यही नौबत 16 जुलाई 1959 को मणिपुर में आई थी। तब डॉ. राममनोहर लोहिया ने भंग विधानसभा के चुनाव हेतु इंफाल में सत्याग्रह किया था। जेल गए थे। अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र बहाल किया था जिसे नेहरू सरकार ने मार डाला था। अब मोदी पर दारोमदार है कि कैसे मणिपुर बचाएं। तब नेहरू सरकार ने तो राजशाही थोप ही दी थी।

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