सनातनी रक्त संबंध में जातीय तनाव से उबाल!

के. विक्रम राव


एक बार फिर शांतिप्रिय मणिपुरियों का चैन छीन लिया गया है। कारण ? दशकों से चली आ रही केंद्र सरकार की बेफिक्री, पूर्वोत्तर प्रदेशों को अजायबघर जैसा बनाए रखना, सस्ती चुनावी चालबाजी, परस्पर-विरोधी जनजातियों के द्वारा निहित स्वार्थों की ओट में वृहत देशहित की नजरअंदाजी आदि। मगर इस दफा तो इस समूचे अराजक माहौल को अनिष्टकारी बनाने में न्यायतंत्र द्वारा अनदेखी ही कारण रही। यह राय है भारत के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ की। उन्होंने मणिपुर हाई कोर्ट के निर्णय निर्णय को निरस्त कर दिया था जिससे मैतेयी आदिवासीजन को जनजाति सूची में शामिल करने का निर्देश था। मणिपुर हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन के आदेश (3 मई 2023) के बाद से मणिपुर में असीम अशांति फैली।

सुप्रीम कोर्ट ने (बुधवार, 17 मई को) मणिपुर हाई कोर्ट द्वारा राज्य सरकार को अनुसूचित जनजातियों की सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने पर विचार करने के निर्देश के खिलाफ “कड़ी टिप्पणी” की थी। इस आदेश से मणिपुर के गैर-मीतेई निवासी जो पहले से ही अनुसूचित जनजाति की सूची में हैं, काफी चिंतित रहे। कोर्ट आदेश से मैती को आरक्षित सूची में शामिल किया जाएगा। नतीजन राज्य में क्रूर जातीय हिंसा हुई, जिसमें कम से कम 60 लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए और हजारों विस्थापित हुए। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की पीठ ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने के पक्ष में राय व्यक्त की थी। जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला भी बेंच का हिस्सा थे।

न्यायमूर्ति ने कहा कि : “हमें उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगानी होगी। हमने जस्टिस मुरलीधरन को खुद को सही करने का समय दिया है लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. मेरा मतलब है कि यह बहुत स्पष्ट है कि यदि उच्च न्यायालय संविधान न्यायाधीशों की पीठों का पालन नहीं करता है तो क्या करना है” ? उच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना मे कहा गया कि : “यह फैसला संविधान पीठ के उन फैसलों के खिलाफ है, जो कहते हैं कि अनुसूचित जनजातियों की सूची को बदलने के लिए न्यायिक आदेश पारित नहीं किए जा सकते हैं।” खण्डपीठ की राय थी : “हाईकोर्ट ने अपने फैसले में तीन त्रुटियां की थी : प्रथम : यह निर्देश है कि मेतई समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करे, यह अनावश्यक था। यह निष्कर्ष निकालना है कि मेतइयों को शामिल करने का मुद्दा लगभग 10 वर्षों से लंबित है सत्य नहीं है। यह निष्कर्ष निकालना है कि मेइती जनजातियां भी तथ्यहीन हैं।

मणिपुर में विभिन्न जनजातियों के आपसी विषम बल्कि विषाक्त रिश्तों के कारण स्वाधीन भारत में अशांति तथा उग्रता सर्जी है। हालांकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी नागरिक स्वतंत्रता के हनन के मसले पर हस्तक्षेप कर इस सीमावर्ती प्रदेश में लोकतांत्रिक मूल्यों तथा मानकों को स्थापित और सुदृढ़ करने का अनवरत प्रयास किया है। बल्कि अवधारणा यह बनी कि इन्हीं न्यायतंत्र की बदौलत ही मणिपुर में जनजीवन आज तक महफूज रहा। इसके प्रथम प्रमाण हैं सत्याग्रही सात दशक पूर्व समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया की गिरफ्तारी और जेल में रहना।

तब उच्चतम न्यायालय ने डॉ. लोहिया के पक्ष में फैसला दिया था : “जिला मजिस्ट्रेट, मणिपुर, द्वारा जारी आदेश को अब तक बाध्यकारी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उसमे याचिकाकर्ताओं के मौलिक अधिकारों को कम करने की मांग की गई थी। यह कहना भी अवैध होगा कि याचिकाकर्ताओं को उनके अधिकारों का प्रयोग करने की अनुमति दी गई तो शांति भंग या सार्वजनिक शांति के लिए किसी भी खतरे की संभावना। जिला मजिस्ट्रेट, मणिपुर को दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के तहत कार्य करने वाला नहीं माना जा सकता है क्योंकि वह अधिनियम इस राज्य पर लागू नहीं किया होता। चूंकि याचिकाकर्ता किसी भी आपराधिक बल का प्रयोग नहीं कर रहे थे इसलिए उनकी सभा को गैरकानूनी नहीं माना जा सकता था। उनके भाषण की स्वतंत्रता और सभा के अधिकारों को कानूनी रूप से कम नहीं किया जा सकता। धारा 144 के तहत आदेश, इस मामले में जारी कानूनी और वैध आदेश नहीं था, धारा 188 के तहत कोई मुकदमा नहीं था, आईपीसी इस आदेश की अवज्ञा के लिए कानूनी रूप से सुनिश्चित कर सकता था। परिणाम में याचिकाकर्ताओं को आजाद किया जाता है। धारा 143, 145 और 188 के तहत गिरफ्तारी के आदेश को रद्द कर दिया जाता है। डॉ. लोहिया के सत्याग्रह का परिणाम रहा कि मणिपुर विधान सभा का निर्वाचन शीघ्र हुआ। लोकतांत्रिक प्रणाली फिर स्थापित की गई। रिशांग कीशिंग जो बाद में सांसद रहे और उनकी सोशलिस्ट पार्टी का योगदान अनुपम रहा। जन संघर्ष बड़ा कामयाब रहा।

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