

कांग्रेस का पुराना नारा कि “सेक्युलरवाद बचाओ” अब बेसुरा हो गया है। सभी दल कभी न कभी भाजपा से मेलजोल कर चुके हैं। हमाम में सभी डुबकी लगा चुके हैं। परिणामत : समाजवादी पार्टी तथा तृणमूल कांग्रेस भी अब गंगाजमुनी नारे से सत्ता की डगर नहीं पकड़ पाएंगी। फिर नरेंद्र मोदी कोई पितामह भीष्म तो हैं नहीं (दाढ़ी के सिवाय) जो खुद को मारने का उपाय विरोधियों को बता दें ताकि वे लोग शिखंडी खोज लें।
मान भी ले यदि सभी राजनीतिक पार्टियां एकजुट होकर 1977-वाली कांग्रेस- विरोधी जनता पार्टी टाइप मोर्चा गठित कर लें तो सवाल वही होगा की मूलभूत आंतरिक विसंगतियों तथा विरोधाभास के फलस्वरुप एकता में दरार पड़ने में देर नहीं होगी। घृणा का फेवीकोल फिर फीका पड़ जाएगा। मोरारजी देसाई वाली सरकार का नमूना अधिक पुराना नहीं है। इन सारे तर्कों, तथ्यों, परिस्थितियों जोड़-घटाने का सारांश यही है कि भाजपा का मजबूत विकल्प बनने का मुहूर्त अभी सर्जा नहीं है। हो सकता है उन्नीसवीं लोकसभा के चुनाव तक कोई सामंजस्य उपजे।
इसी बीच एक आशंका और है कि चीन और पाकिस्तान सीमा पर ऐसी दुरूह हालत पैदा कर रहें हैं जिनका गहरा प्रभाव लोकसभा चुनाव पर पड़े। जैसे पुलवामा में पाकिस्तानी आतंकियों ने कर दिखाया था। मोदी को अपार लाभ हुआ। इस बार भी कहीं ऐसी ही दोबारा ना हो जाए। तब चुनाव का अंकगणित ही पलट जाए।
K Vikram Rao
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