पुलिस हो या जनताः घर किसी का भी उजड़े, ऐसा कोई इल्म न हो…

  • आजकल पुलिस और जनता की झड़प में जाने लगी हैं जानें…
  • संभल हो या बहराइच, देश में ये अशांति का माहौल कौन बना रहा…
  • सोशल मीडिया और रील के चक्कर में उग्र हो रही जनता, पुलिस भी बेकाबू

लखनऊ से नया लुक के ब्यूरो प्रमुख ए. अहमद सौदागर की रिपोर्ट…

दिल्ली की केंद्र सरकार हो या यूपी की योगी सरकार या फिर किसी भी सूबे की सरकार। सभी सरकारें पुलिस को मित्र पुलिस बनाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। लेकिन बीते बरसों में पुलिस और जनता के बीच वो घटनाएं हो जाती हैं, जो न केवल दिलों को झकझोर कर रख देती हैं, बल्कि वो पुलिस को भी सोचने पर मजबूर करती हैं। सवाल भी बड़ा- यदि कहीं आंदोलन जैसा रुख बन रहा है तो वो वहां पुलिस जाए या न जाए। सम्भल में हुई घटना इसका ताजा उदाहरण है। घर किसी का भी तबाह हो, उजड़े ये कहां की रवायत है। संभल में तैनात एक डिप्टी एसपी ने अपनी बातें भी मीडिया के सामने रखीं और कहा कि क्या पुलिस वालों का परिवार नहीं होता? क्या पुलिस वालों के मरने से उनका घर तबाह नहीं होता? उनका यह सवाल उतना ही तार्किक है, जितना आम जनता का। लेकिन क्या कारण है कि आम जनता और पुलिस के बीच आजकल झड़प हो जा रही हैं? इन सारे सवालों का जवाब तलाशने के पहले कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं…

  • कुछ साल पहले गाजीपुर जिले के जमानिया में पुलिसिया कार्यशैली से नाराज भीड़ ने दारोगा को पीट-पीटकर मार डाला।
  • मथुरा जिले में दबिश देने गए पुलिसकर्मियों के आक्रमक रुख से नाराज ग्रामीणों का थानेदार पर कुल्हाड़ी से हमला।
  • देवरिया जिले में आंदोलित भीड़ पर पुलिस ने झोंका फायरिंग। एक छात्र की मौत। बदले में भड़की भीड़ ने पुलिस के खिलाफ किया जमकर नारेबाजी।
  • 12 जून 2015 को बदायूं जिले में हत्यारोपी की खिदमत करना पुलिस को पड़ा भारी। दूसरे पक्ष के लोगों ने पुलिस पर हमला कर पुलिस को पीटा।
  • 31 अगस्त 2015 को बाराबंकी जिले के देवा कोतवाली क्षेत्र स्थित माती चौकी को नाराज ग्रामीणों ने फूंक दिया।
  • वर्ष 2024 में बहराइच जिले में मामूली कहासुनी के बाद एक पक्ष के लोगों ने दूसरे पक्ष पर गोलियों की बौछार कर मौत की नींद सुला दिया।
  • संभल में जामा मस्जिद में सर्वे के दौरान पुलिस और भीड़ के बीच हुई झड़प में पांच लोगों की जान चली गई, जबकि कई पुलिसकर्मी जख्मी हुए।

पिछले कुछ साल पहले और हाल में हुई ये घटनाएं यह दर्शाने के लिए काफी है कि या तो पुलिस का इकबाल खत्म हो रहा है, या जनाक्रोश की हदें टूट रही है। विशेषज्ञ मानते हैं दोनों के रिश्ते के बीच आई खटास की सबसे बड़ी वजह पुलिस के बढ़ रहे नाजायज हस्तक्षेप को भी टकराव की वजह मानते हैं। कभी गांव के लोग चौकीदार की लाल पगड़ी देखकर घरों में दुबक जाते थे, लेकिन अब प्रतिरोध स्वरूप पुलिस टीम पर हमलावर की उनकी भूमिका एक नए बदलाव की पुष्टि है। बहुत से लोग पुलिस में सुधार के लिए आयोग के गठन को प्रासंगिक मानने लगे हैं। पुलिस के खिलाफ जनता में प्रतिरोध की यह भावना कैसे और क्यों आई?

मार्च 2017 में जैसे ही उत्तर प्रदेश के सरकार की कमान भगवाधारी योगी आदित्यनाथ ने सम्भाली वैसे ही वो हजरतगंज कोतवाली पहुंच गए। कोतवाली जाकर उन्होंने पूरे सूबे को यह संदेश दे डाला कि अब पुलिस जनता के साथ मित्र पुलिस की ही भूमिका निभाएगी। लेकिन विगत कुछ बरसों में पुलिस और आम जनता की झड़प जानलेवा होती जा रही हैं। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि आज आम आदमी के मन में पुलिस के प्रति बहुत बुरी भावना रहती है। लोग पुलिस को गाली-गलौच करने वाला, बेमतलब लोगों से मारपीट करने वाला और परेशान करने वाला, चरित्रहीन , नशाखोर आदि समझते हैं। शायद यही कारण है कि आम आदमी पुलिस को कोई सहयोग और जानकारी नहीं देते। इन सबके पीछे कारण पुलिस का जनता के प्रति खराब व्यवहार है। जब तक पुलिस अपने व्यवहार में सुधार नहीं लाती है, तब तक उनकी छवि में सुधार नहीं हो सकता।

पूर्व वरिष्ठ अधिकारी जीएल मीणा कहते हैं कि पुलिस की छवि को सबसे बड़ा धक्का आंदोलनों की वजह से लगता है। आपको आंदोलन भी शांत कराना है और छवि भी बचानी है। कई बार छात्र आंदोलन में इतने भड़क जाते हैं वो कुछ भी करने पर आमादा हो जाते हैं, उनके साथ पुलिस की थोड़ी सी कड़ाई उन्हें बुरा बना देती है। इसका साफ-साफ कारण यह है कि छात्रों के साथ जनता का शांत समर्थन होता है और पुलिस के साथ उतनी ही रुखाई। अब इस स्थिति में पुलिस को बहुत की शांत और सटीक कदम उठाना चाहिए, नहीं तो उसकी छवि खराब होनी तय है।

लखनऊ के मशहूर शिक्षाविद डॉ. अनिल कुमार त्रिपाठी कहते हैं कि भीड़ को नियंत्रण करने के लिए पुलिस को उग्र रूप अपनाना ही पड़ता है। वो भद्दी गालियां न दें लेकिन हथियारों के प्रदर्शन से आंजोलनकारियों के बीच में एक भय जरूर पैदा करें कि पुलिस उग्र हुई तो कुछ भी हो सकता है। पुलिस वालों के भी परिजन होते हैं। उनके भी बच्चे होते हैं, पीछे रोने वाले होते हैं। इसलिए भीड़ को उकसाने वालों पर नजर रखनी चाहिए और उन पर कार्रवाई करनी चाहिए। जान सभी की अमूल्य हैं, चाहे वो पुलिस वालों की हों या आज जनता की। ऐसी घटनाएं सभ्य समाज के लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं हैं।

अगस्त 2016 में पुलिस और जनता के बीच हुए झड़प पर करीब आठ हजार लोगों के बीच सर्वे हुआ। इन आठ हजार लोगों में करीब साढ़े चार हजार आम व्यक्ति थे और बाकी पुलिस कर्मी। इसमें 67 फीसदी लोगों का कहना था कि भीड़ जब उग्र हो जाती है, तब पुलिस को कड़ा रुख अपनाना पड़ता है। यही मूल कारण है कि पुलिस और जनता में मुठभेड़ हो जाती है। इन हालातों में पुलिस वाले ज्यादा हताहत होते हैं। वहीं 60 फीसदी लोगों का कहना है कि आंदोलन के बीच में जब उग्र भीड़ गाली-गलौच पर आमादा हो जाती है तो पुलिस अपना व्यवहार कड़ा करती है।

वहीं 48 प्रतिशत लोगों का कहना है कि यदि जनता गलत व्यवहार न करे तो पुलिस दुर्व्यवहार नहीं करती। वहीं करीब 17 परसेंट लोग कहते हैं कि पुलिस के लोग अपनी वर्दी का धौंस जनता में दिखाने के लिए या तो गाली का प्रयोग करते हैं या फिर किसी न किसी शख्स पर बल प्रयोग करते हैं इस कारण पुलिस और जनता के बीच गहरी खाई बन गई है। इनमें से करीब 12 फीसदी लोगों की मानें तो पुलिस हर शिकायत पर घूस लेना चाहती है, इसलिए पुलिस आने का मतलब लोग पैसे के खर्च को मान बैठते हैं। लेकिन सभी लोग एक सुर में कहते हैं कि जनता की सुरक्षा के लिए जितनी पुलिस आवश्यक है, उतना ही पुलिस की सुरक्षा करना जनता का कर्तव्य है। बस इंसान को इंसानियत की समझ होनी चाहिए। हम यहीं गलती कर बैठते हैं और परेशानियां सिर उठाने लगती हैं।

एक अनाम शायर का शेर और बातें फिर आगे होंगी…

खुद को सब कुछ समझना आदमी का अहम है
दूसरे को कुछ न समझना आदमी का वहम है,
इसी वजह से तो सोने की लंका हो गई थी खाक,
जहां को खुद का समझना आदमी का फहम है…।

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