दो टूक : नये संसद भवन के उद्घाटन की सियासत दूर तलक गूंजेगी

राजेश श्रीवास्तव


दो हजार के नोट की बंदी चुनाव से पहले मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक देश को जब आज प्रधानमंत्री नयी संसद को सौपेंगे तो एक तरफ उनके सामने 19 विपक्षी दल एकजुट होते हुए दिखाएंगे। यही क्यों, बृजभूषण शरण सिंह के मामले में धरने पर बैठी खिलाड़ियों ने आज महिला पंचायत करने का मन बनाया है । ऐसे में संसद के उद्घाटन का क्या प्रभाव पड़ेगा और विरोधी सियासी दलों का क्या असर होगा, यह भी समझने वाली है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी 28 मई को देश के नए संसद भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं। लेकिन इस उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने के अपने निर्णय की घोषणा करते हुए 19 विपक्षी दलों ने एक संयुक्त बयान जारी किया है । उद्घाटन का बहिष्कार करने वाली 19 पार्टियों, जिन्होंने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर किए हैं, वे हैं – कांग्रेस, डीएमके, आम आदमी पार्टी, शिवसेना-उद्धव बालासाहेब ठाकरे, समाजवादी पार्टी, सीपीआई, सीपीआई-एम, जेएमएम, केरल कांग्रेस-मणि, विदुथलाई चिरुथगल काची, राष्ट्रीय लोकदल, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल-यूनाइटेड, एनसीपी, आरजेडी, आईयूएमएल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, एमडीएमके। नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी को पूरी तरह से दरकिनार करना न केवल महामहिम का अपमान है बल्कि लोकतंत्र पर सीधा हमला भी है । जब लोकतंत्र की आत्मा को ही संसद से निष्कासित कर दिया गया है, तो हमें नई इमारत में कोई मूल्य नहीं दिखता. हम नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने के अपने सामूहिक निर्णय की घोषणा करते हैं।

हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि विपक्ष के आरोपों में कुछ दम हो सकता है। जिस तरह से कृषि कानूनों को पारित किया गया, केंद्र द्बारा हाल ही में दिल्ली की चुनी हुई सरकार की शक्तियों को कम करने वाले अध्यादेश को जारी किया गया, केंद्र द्बारा ऐसे कई फैसले हैं जिन्हें लोकतांत्रिक परंपराओं के विपरीत माना जा सकता है। विपक्षी दलों के पास एक यह भी तर्क है कि राष्ट्रपति को नई संसद का उद्घाटन करना चाहिए था। लेकिन इस के बावजूद, क्या यह बातें उद्घाटन समारोह के बहिष्कार को सही ठहराती हैं? संसद पूरे देश की होती है। हां पीएम मोदी इसका उद्घाटन करेंगे और शायद इस तरह उद्घाटन नहीं होना चाहिए था। लेकिन यह इमारत और जिस संस्थान का यह प्रतिनिधित्व करती है, वह पीएम मोदी के कार्यकाल के काफी बाद तक बना रहेगा। कम से कम यही उम्मीद है। क्या पता शायद एक दिन इन 19 पार्टियों में से कुछ नए संसद भवन में सत्ता पक्ष में बैठी होंगे और उनका कोई सदस्य प्रधानमंत्री हो. कुछ मौके ऐसे होते हैं जिन्हें संस्थाओं के दीर्घकालीन इतिहास के नजरिए से देखने की जरूरत होती है, न कि आज के पक्षपातपूर्ण प्रतिद्बंद्बिता के नजरिए से । अगर कल प्रधानमंत्री 26 जनवरी की परेड का इस्तेमाल अपने निजी ब्रांड को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं, तो क्या विपक्ष गणतंत्र दिवस परेड का बहिष्कार करेगा? लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि विपक्ष सरकार को फ्री पास दे देता है। पूर्ण स्वीकृति और पूर्ण बहिष्कार के बीच वे कई चीजें कर सकते थे – उदाहरण के लिए उद्घाटन में विपक्ष काली पट्टी पहन कर जाता या केवल टोकन प्रतिनिधियों को भेजता।

समारोह का बहिष्कार करने वाले 19 दलों के पास लगभग 14० लोकसभा सीटें और लगभग 97 राज्यसभा सीटें हैं। इसका मतलब है कि हर चार में से एक लोकसभा सांसद और हर पांच में से दो राज्यसभा सांसद उद्घाटन के समय उपस्थित नहीं होंगे। यह उचित हो या न हो, यह विपक्ष के द्बारा एक बहुत बड़ा राजनीतिक बयान/ पॉलिटिकल स्टेटमेंट है । यह क्यों महत्वपूर्ण है इसका दूसरा कारण यह है कि यह हमें उन दलों का स्पष्ट संकेत देता है जो 2०24 चुनाव से पहले बीजेपी विरोधी खेमे में मजबूती से खड़े हैं। इसे इन पार्टियों के बीच भविष्य में संभावित गठबंधन के लिए एक महत्वपूर्ण पहला कदम के रूप में देखा जा सकता है। अगर यूपीए का एक भी घटक बीजेपी विरोधी पार्टियों में से कोई भी एक इसमें नहीं आता, तो इससे मीडिया को विपक्षी दलों में दरार का आरोप लगाने का मौका मिल जाता ।

तीसरा कारण वास्तव में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से निकलता है। अतीत में अलग-अलग समय पर, विपक्षी दलों ने इस डर से कोई विशेष स्टैंड नहीं लेने का विकल्प चुना है कि पीएम मोदी और बीजेपी इसे उनके खिलाफ तर्क के रूप में इस्तेमाल करेंगे और उन्हें ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार देंगे। बहुत कम लोग इस बात से इनकार कर सकते हैं कि पीएम और बीजेपी का राजनीतिक वर्चस्व ऐसा हो गया है कि पार्टियां अक्सर कुछ मुद्दों पर स्पष्ट स्टैंड लेने के परिणामों से डरती हैं। बॉयकॉट के मौजूदा ‘दौर’ में इन 19 पार्टियों के नेताओं को यह जरूर पता होगा कि पीएम मोदी और बीजेपी उन पर ‘राष्ट्रीय महत्व’ के एक कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेने का आरोप लगाएंगे। गौरतलब है कि इन पार्टियों ने बीजेपी के निशाने पर आने के डर से बैकफुट पर नहीं जाने का फैसला किया है. क्या यह मुद्दा इस तरह के बहिष्कार के लायक था, इसपर सवाल-जवाब तो होता रहेगा।

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