राहुल कब जानेंगे सूप और छलनी की शैलियों में अंतर?

के. विक्रम राव


प्रत्येक लोकतंत्र-प्रेमी भारतीय को 52-वर्षीय राहुल गांधी की बात पर गंभीरता से गौर करना चाहिए। उनकी मांग है कि नवीन संसद भवन का 28 मई को उद्घाटन राष्ट्रपति करें, न कि प्रधानमंत्री। शायद इस अयोग्य करार दिये गए सांसद को पछतावा अभी तक नहीं हुआ कि उनके पिता, माता, दादी (इंदिरा गांधी) और पितामह (जवाहरलाल नेहरू) बहुधा राष्ट्रपति की अवमानना करते रहे। इंदिरा गांधी ने तो कुछ राष्ट्रपतियों को चतुर्थ श्रेणी के सरकारी नौकर से भी बदतर बना डाला था। राहुल गांधी प्रायश्चित तक नहीं सुझाते हैं ? क्यों ? इस प्रौढ़ कांग्रेसी को भाजपाई प्रधानमंत्री से द्वेष है? अतः यहां इतिहास-सिद्ध घटनाओं के विवरण पर विचार कर लें। नीर-क्षीर विवेचन भी हो जाएगा। सोनिया गांधी तो दो दो राष्ट्रपतियों से नाराज हो गई थीं। अतः उनकी आलोचना तो नारी-सहज है। पहला वाकया था जब दलित राष्ट्रपति केआर. नारायण ने सोनिया को प्रधानमंत्री लगभग नामित कर दिया था (23 अप्रैल 1999)। तब अटल सरकार एक वोट से गिर गई थी। सोनिया गांधी के समर्थक सांसदों की सूची में मुलायम सिंह के सांसदों का नाम भी शामिल था। उस रात मुलायम सिंह यादव ने जॉर्ज फर्नांडिस के आग्रह पर कांग्रेस को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया था। सोनिया गांधी की हसरत अधूरी रह गई। रोम से राहुल की नानी भी 10 जनपथ आ गई थीं। शपथ ग्रहण समारोह में अतिथि थीं। पर राष्ट्रपति असहाय हो गए। मगर जब संसद से पर्याप्त समर्थन न मिला तो वे सोनिया को पद कैसे दिला देते ? बस इसी कारण से नारायण चाहकर भी दुबारा राष्ट्रपति नहीं बन पाये। बाद में मुलायम सिंह यादव के प्रस्ताव पर अटल बिहारी वाजपेई ने वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति चुनवा दिया। इन्हीं कलाम साहब ने 2007 में सोनिया गांधी को संप्रग का बहुमत होने के बावजूद प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। कारण विभिन्न बताए जाते हैं। एक तो था कि तीनों सेनाध्यक्षों ने विदेशी मूल के प्रधानमंत्री के प्रति आस्था संजोने में असमर्थता दर्शायी थी। लाचार सोनिया ने तब अपने पसंदीदा पुतले को प्रधानमंत्री बनवा दिया। दस वर्ष मनमोहन सिंह रहे बिना पलक झपकाए ! अतः प्रिय पुत्र को डॉ. अब्दुल कलाम पर रोष तो होगा ही।

भले ही तब तक राहुल गांधी ने पर्याप्त राजनीति चेतना और ज्ञान न पाया हो, क्योंकि यह सब उनके जन्म (19 जून 1970) के पूर्व की बाते हैं। मगर वे किताबों और संसदीय रपट से तो जान ही गए होंगे कि सरदार जैल सिंह पर उनके पिताश्री ने खुला युद्ध घोषित कर दिया था। इस वारदात से दिल्ली दहली थी। बात 1987 के पूर्वार्ध की है। अचरज इस बात का है कि राष्ट्रपति भवन पहुंचकर जैल सिंह का पहला बयान था कि यदि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हुकुम देंगी तो “मैं झाड़ू भी लगा सकता हूं।” इतने विनीत सरदार जैल सिंह ने राजीव गांधी को क्रोधित क्यों कर दिया ? दिल्ली गर्म थी कि राष्ट्रपति जी कांग्रेसी युवा प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने का निश्चय कर चुके हैं। मेरे (टाइम्स ऑफ इंडिया के) संपादक स्व. गिरीलाल जैन का दावा था कि उनके प्रयासों से ही यह बला टली थी। कितना सच है केवल ईश्वर जानें। तब राजीव गांधी को पदच्युत करने के राष्ट्रपति की साजिश में खास किरदारी थी राहुल गांधी के चाचा अरुण नेहरू की। मगर राहुल गांधी के पुरखों की शत्रुता तो कई वर्षों से भारत के राष्ट्रपतियों से थी। प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से शुरू करें। राहुल गांधी की दादी के पिता जवाहरलाल नेहरू हमेशा इस सीधेसाधे किसान को हकारते रहे। वे चाहते थे कि सी. राजगोपालचारी ही प्रथम राष्ट्रपति हो जाए, जो लॉर्ड माउंटबैटन के बाद गवर्नर जनरल भी रहे हैं।

भारत छोड़ो (1942) आंदोलन के वे विरोधी थे। जेल नहीं गये। बल्कि जिन्ना के पाकिस्तान के पैरोकार रहे। भला हो सरदार वल्लभभाई पटेल का कि यह धोतीधारी किसान आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उसी दौर की घटना है। प्रधानमंत्री कार्यालय से अवमानना पत्र राष्ट्रपति को लिखा गया कि वे अपना आय का लेखा जोखा भरें। राजेंद्र प्रसाद का उत्तर था : “मैं केवल आधा वेतन ही लेता हूं।” दूसरे राष्ट्रपति डॉ एस. राधाकृष्णन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद वे इंदिरा बेटी के बारे में चिंतित थे। कोशिश भी की थी कि उन्हें कहीं स्कूली टीचरी दिलवा देते हैं। तब उन्हें पता चला कि इंदिरा गांधी के पास स्नातक की डिग्री नहीं है। क्यों इंदिरा गांधी ने राधाकृष्णन को दुबारा राष्ट्रपति नहीं प्रस्तावित किया ? चीन से पराजय (अक्तूबर 1962) पर डॉ. राधाकृष्णन का बयान था : “हमारे अति-आत्मविश्वास के फलस्वरूप भारत की पराजय हुई।” नेहरू को दोषी करार दिया था। पुत्री ने बदला लिया। बाद में नीलम संजीव रेड्डी के नामांकन पर हस्ताक्षर करके इंदिरा गांधी ने उन्हें चुनाव हरवा दिया। निर्दलीय वीवी गिरी का समर्थन किया। याद कर लें 24 जून 1975 की आधी रात। तब सत्तर साल के बूढ़े मियां फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर के लिए विवश कर दिया था। बिना काबीना की अनुमति के देश में तानाशाही कायम हो गई थी। ढाई लाख विरोधी (मुझको मिलाकर) कैद हो गए थे। जबरन दस्तखत करवाने के आठ माह में ही अहमद मर गए।

भारतीय संविधान की धारा 74 तथा 75 के तहत जनता द्वारा निर्वाचित प्रधानमंत्री हमेशा राष्ट्रपति से कहीं अधिक शक्तिशाली होते आए हैं। वह भारतीय जन, गण, मन का प्रतीक होता है। अब क्या मतलब है कि राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री के ऊपर हैं। नट और पुतले में फर्क सभी जानते हैं। यह एक जाना बूझा फूहड़ मजाक होगा। राहुल गांधी कभी आज तक किसी निर्वाचित पद पर मतदान से नहीं आए हैं। लोकसभा में अमेठी से हारे, वायनाड से हटाये गए। मगर उनका हुक्म कांग्रेस पार्टी और चार निर्वाचित सरकारों (रायपुर, जयपुर, शिमला अब बेंगलुरु) में खुत्बा की भांति चलता है। पर सवाल है कि फिर मनोनयन और निर्वाचन में क्या फर्क रहा ?

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