मातु तात कहँ देहि देखाई।
कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा।
जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही।
अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी।
गति असि तोरि मातुजेहि लागी॥
चौदह बरस पादुका आसन।
श्रीराम राज्य बैठे सिंहासन ॥
संध्या समय सरयू तट माहीं।
तीनिउ भाई राम संग जाहीं॥
श्रीराम से भ्रात भरत अस क़हत।
माता कैकई को करिये दंडित ॥
वन भेजा मंथरा संग मिल कर।
राजद्रोह किया षड्यंत्र रचकर॥
भावी महाराज और महारानी को
चौदह वर्ष वनवास झेलना पड़ा,
तो दूसरी ओर पिता महाराज को
दुखद मृत्यु संत्रास भोगना पड़ा॥
ऐसे षड्यंत्र हेतु सामान्य नियम है
अपराधिनी को मृत्युदंड नियत है,
फिर भी आपने माता कैकई को
दण्ड न देकर क्षमा क्यों किया है।
श्रीराम बोले, जिस कुल में तुम सा,
चरित्रवान, धर्मपरायण पुत्र जन्मा है,
उसका जीवन तो पितरों के सब
अपराध प्रायश्चित कर देता है।
श्रीराम बोले जिस माँ ने तुम जैसे
महान पुत्र को जन्म दिया है भरत,
उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है
यह सुनकर भी असंतुष्ट रहे भरत।
यह तो मोह है और भइया राजा
का दण्डविधान मोहमुक्त होता है,
राजा की तरह उत्तर दीजिये कि
माता को दंडित क्यों नहीं किया है।
आपसे प्रश्न आपका अनुज नहीं,
अयोध्या का नागरिक कर रहा है,
राम सोच कर बोले कि अपनो को
दण्ड न देना सृष्टि का कठोर दण्ड है।
माता कैकई ने अपनी भूल का बड़ा
कठोर दण्ड भोगा है, वनवास के
चौदह वर्षों में वह हर क्षण मरी हैं,
हर दिन तिरस्कार झेलती रही हैं।
अपनी एक भूलवश माता ने अपना
पति खोया, अपने चारो बेटे खोया,
अपराधबोध से वह कभी मुक्त न
हो सकीं, उन्होंने सारा सुख खोया।
वनवास के बाद माता के सिवाय
रघुकुल परिवार प्रसन्न, सुखी है,
माता सुखी नहीं हैं कोई किसी को
इससे कठोर दंड क्या दे सकता है।
मेरे कारण अनायास ही मेरी माँ
को इतना कठोर दण्ड भोगना पड़ा है,
राम के नेत्रों में जल उतर आया था,
और भरत आदि भाई मौन हो गए थे।
उनकी भूल को अपराध समझना
ही क्यों, यदि वनवास नहीं होता,
तो संसार हम भाइयों के अतुल्य
भ्रातृप्रेम व सौहार्द कैसे देख पाता।
मैंने तो केवल अपने माता-पिता
की आज्ञा का पालन किया था,
परंतु तुम तीनों ने तो मेरे स्नेह में
चौदह वर्ष का वनवास भोगा था।
वनवास न होता, संसार न सीखता,
कि भाइयों का सम्बन्ध होता कैसा है,
भरत के प्रश्न अब मौन हो गए थे,
वे अनायास भाई से लिपट गए थे।
श्रीराम केवल एक नारा नहीं हैं,
राम एक आचरण हैं, चरित्र हैं,
आदित्य वे रिश्तों की मर्यादा हैं,
जीवन जीने की शैली पवित्र हैं।