नकल करने से अकल नहीं बढ़ती बल्कि आप पागल जरूर बन जाते हैं

एक पागलखाने में दो पागल करीब-करीब लगता था ठीक हो गये। तो हर वर्ष परीक्षण होता था। तो परीक्षा के लिए दोनों बुलाये गये। एक पागल भीतर गया, दूसरा बाहर बैठा रहा। उसने कहा कि जो कुछ भी उत्तर हो, तू लौटते में मुझे भी बता देना। आम आदमी संदिग्ध होता है और दूसरे से उत्तर जानना चाहता है, तो पागल तो बेचारा पागल है! किसी तरह जोड़त्तोड़ कर ऐसी हालत आई है कि परीक्षा का दिन आया है। अगर पास हो गये तो बाहर निकले, अन्यथा फिर पड़ गये कारागृह में। एक आदमी भीतर गया। डाक्टर ने उससे पूछा कि अगर तुम्हारी आंखें निकाल ली जायें तो क्या होगा? तो उस आदमी ने कहा, आंखें अगर निकाल ली जायें? तो मुझे दिखाई पड़ना बंद हो जायेगा। वह बाहर निकला। उसने दूसरे से कहा ख्याल रखना, उत्तर है, दिखाई पड़ना बंद हो जायेगा। वह दूसरा भीतर गया। डाक्टर ने उससे पूछा, अगर तुम्हारे दोनों कान काट लिये जायें? उसने कहा साफ है, दिखाई पड़ना बंद हो जायेगा।

तुम उत्तर मत सीखना, नहीं तो दूसरे पागल की गति होगी। गुरु नये रोधक खड़े करता है और हर शिष्य के लिए नये रोधक खड़े करता है। इसलिए धोखा देने का कोई उपाय नहीं है। तुम अगर सहज हो, तो ही पार हो सकोगे। और अक्सर यह होता है कि अगर तुमने उत्तर सीख लिया, तो तुम सहज नहीं रह जाते। यह दूसरा पागल भी हो सकता था बिना उत्तर के पार हो जाता। क्योंकि यह खुद सोचता। पर इसको उत्तर तैयार था। इसने सोचा, अब झंझट क्या करनी है? बात साफ है। उत्तर कभी भी कंठस्थ मत करना। उत्तर से ज्यादा अज्ञान को सम्हालनेवाली और कोई चीज नहीं है। उत्तर सिर्फ पागल याद करते हैं। इसलिए अगर गीता कंठस्थ की हो, भूल जाना। कुरान याद कर लिया हो, विसर्जित कर देना। शास्त्र से बचना; क्योंकि बंधा हुआ उत्तर तुम्हें परमात्मा के द्वार के भीतर न जाने देगा। तुम वापिस संसार में फेंक दिए जाओगे। तुम्हारा अपना उत्तर चाहिए जो तुम्हारे प्राणों से आता हो, प्रामाणिक हो। जो तुम्हारे पूरे अस्तित्व को प्रतिध्वनित करता हो। जो तुम्हारा स्वाद देता हो। उसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हें इन तीन प्रतिरोधकों से, इन तीन बाधाओं से वस्तुतः गुजरना होगा; तभी तुम उस पार जा पाओगे। आदमी चालाकी करता है धर्म में भी।

स्कूल में छोटे-छोटे बच्चे ही नकल नहीं करते, बड़े-बूढ़े भी नकल कर रहे हैं; जीवन के बड़े विद्यालय में नकल कर रहे हैं। और वहां भी वे सोचते हैं कि दूसरे ने क्या अपनी कापी में लिखा है, उसी को उतार कर पार हो जायें। शायद विद्यालयों में धोखा चल जाता होगा, क्योंकि वे विद्यालय इस धोखे से भरे हुए जगत के हिस्से हैं। लेकिन सदगुरु के पास धोखा न चलेगा। क्योंकि धोखे के बाहर होना ही तो एकमात्र उसकी कला है। और तुम्हें धोखे के बाहर ले जाना एकमात्र उसकी चेष्टा है।

दीया तले अंधेरा है; उसे भली-भांति गौर से देखो। वह तुम्हारे कारण नहीं है, दीये के कारण है। तुम तो ज्योति हो। मृण्मय दीये से संबंध तोड़ लो, चिन्मय ज्योति के साथ एक हो जाओ, भीतर अंधेरा मिट जायेगा। और जिसके भीतर अंधेरा मिट जाता है, उसके बाहर भी अंधेरा मिट जाता है। तब तुम प्रकाश में चलते, प्रकाश में जीते हो। वह प्रकाश का परम-अनुभव ही अध्यात्म की अंतिम मंजिल है। और तुम उसके पास से पास हो और दूर से दूर भी। चेष्टा सघन हो, वह बहुत पास है। चेष्टा समग्र हो, वह अभी और यहीं है, गाड इज नाऊ हियर। चेष्टा धीमी हो, धोखे से भरी हो, कुनकुनी हो, तब गाड इज नोव्हेयर, तब वह कहीं भी नहीं है। तुम्हारी त्वरा, तुम्हारी प्रबल आकांक्षा, तुम्हारी प्यास इतनी हो जाये कि तुम बचो ही न भीतर। बस, तुम पूरी खोज बन जाओ, इसी क्षण वह प्रकट हो जायेगा। पास से पास, दूर से दूर! बड़ा विरोधाभास लगता है। विरोधाभास तुम्हारे कारण है। तुमने उसे अब तक चाहा ही नहीं है।

ओशोवाणी: बहुत तेज न दौड़ों, वही मिलेगा जो भाग्य में है

एक आदमी था, शेख अब्दुल्लाह उसका नाम। उसके बारह लड़के हुए। उसने सभी का नाम अब्दुल्लाह जैसा रखा। ऐसे नाम रखे जो अल्लाह पर पूरे होते हैं। किसी का रहीमतुल्लाह, किसी का हिदायतुल्लाह–इस भांति। फिर उसका तेरहवां बच्चा पैदा हुआ। तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। सब नाम चुक गये, जो अल्लाह पर पूरे होते थे। तो वह मुल्ला नसरुद्दीन के पास गया। भाग्य से मैं मौजूद था उस शुभ घड़ी में। और उसने कहा नसरुद्दीन से, ‘बड़े मियां! तेरहवां लड़का पैदा हुआ, अल्लाह में पूरे होते किसी नाम का सुझाव दें; मैं तो थक गया खोज-खोज कर। सब नाम चुक गये।’

नसरुद्दीन ने बिना झिझके आकाश की तरफ देखा और कहा, ‘तुम उसका नाम रखो, बस कर अल्लाह!’

जब तुम्हारे जीवन में ऐसी घड़ी आ जाये जब तुम कह सको, ‘बस कर अल्लाह’, तभी धर्म का प्रारंभ है। अभी तुम थके नहीं। अभी तुम अल्लाह से भी कुछ झूठ चलाना चाहते हो। अभी तुम्हारी प्रार्थना भी संसार का अंग है। अभी तुम्हारी पूजा भी धन के, प्रतिष्ठा के, यश के सामने ही चल रही है। अभी तुम मंदिर भी जाते हो तो मांगने; देने नहीं। और परमात्मा के द्वार पर वही पहुंच पाता है जो देने गया है, मांगने नहीं। भिखमंगों की वहां कोई जगह नहीं है। भिखारी हो कर उस परम-सम्राट से तुम मिलोगे भी कैसे? उस जैसा ही होना पड़ेगा। कुछ तो सम्राट जैसे हो जाओ? उसी अंश में तुम परमात्मा जैसे हो जाओगे। मांगती हुई प्रार्थनायें उस तक नहीं पहुंचतीं। सिर्फ देनेवाली, अपने को देनेवाली प्रार्थनायें उस तक पहुंचती हैं।

कभी हाथ उठाओ आकाश की तरफ और कहो, ‘बस कर अल्लाह!’ रुको, बहुत दुख झेला। झेल-झेल कर तुम इतने आदी हो गये हो दुख के कि अब वह दुख जैसा मालूम भी नहीं पड़ता। तुम्हारी बुद्धि भी संवेदनशून्य हो गई है। बहुत नर्क में भटके, लेकिन इतने आदी हो गये हो कि अब तुम्हें भरोसा भी नहीं आता है कि कोई स्वर्ग हो सकता है। सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि खोये भरोसे को जो जगा दे। और तुम्हें उस पीड़ा के मार्ग से गुजार दे साथ दे कर, जहां तुम अकेले न गुजर सकोगे। फिर जैसे ही संताप का क्षण गुजर जाता है, प्रकाश का क्षण आता है, गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सदगुरु तुम्हें तुम्हारे भीतर के गुरु से मिला देता है।

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