अपने समय के महान हस्ताक्षर बाबूजी

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी (राष्ट्रपति जी के पूर्व विशेष कार्य अधिकारी)

प्रत्येक व्यक्ति अपने समय का हस्ताक्षर होता है। स्मरण लोग उन्हें रखते हैं जो अपने जीवन मूल्यों को सजगता से जीते हैं। निष्ठा और ईमानदारी से जीते हैं। पूज्य पिताश्री पण्डित श्री सीताराम त्रिपाठीजी एक ऐसे ही शानदार व्यक्तित्त्व थे। आपका जन्म 03 जून 1944 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के महेशपुर में हुआ। आप  काशीनरेश त्रिपाठी के यशष्वी सुपुत्र थे। डाकघर में लंबे समय तक सेवा देने के बाद वह 2009 में सेवानिवृत्त हुए। अपने सेवाकाल में डाकघर की अपनी प्रतिबद्धता को उन्होंने बखूबी जिया। वह हर कार्य समय से, नियम से, और अनुशासित ढंग से करना पसंद करते थे। उनके जीवन में सत्य और ईमानदारी का स्थान बहुत ऊंचा था। वह सर्वदा यह कोशिश करते थे कि उनसे किसी की आत्मा को कोई कष्ट न पहुंचे और कोई भी व्यक्ति यदि उनके पास कोई उम्मीद लेकर आया है तो वह निराश होकर न जाये। आगे बढ़कर किसी की मदद कैसे की जाती है, यह उनके जीवन से सीखने योग्य बात थी। यह दुखद है है और असीम पीड़ादायी है कि उन्होंने असमय हमें छोड़ा।

किसी के लिए भी ऐसी स्थिति बहुत पीड़ाप्रद होती है जब उसके सिर से किसी पिता का साया उठ जाता है। माँ तो 2021 के मई महीने में कोविड-काल में जब उनका ऑक्सीज़न लेवल कम हुआ तो एंबुलेंस न मिलने के कारण नहीं बच सकीं। कोविड का दंश देखते ही देखते मेरे परिवार पर हावी हो गया। सरकार की लचर व्यवस्था और अस्पतालों की क्रूर सचाई जब भी स्मरण करता हूँ तो यह लगता है कि भारत के लोग भीतर से बहुत अराजक हैं। डॉक्टर एक क्रूर कौम का नाम है। महात्मा गांधी ने जब सन 1909 में हिन्द स्वराज लिखा तो उसमें उन्होंने डॉक्टर की आलोचना की थी। जब पहली बार हिन्द स्वराज पढ़ा था तो हमें भी यही लगा कि ये गांधी जी डॉक्टरों की क्यों आलोचना करते हैं? डॉक्टर तो भगवान होते हैं। लोग भगवान के बाद इन्हीं डॉक्टर को भगवान का दर्ज़ा देते हैं। इनके बारे में धुंधली सी अनुभूति हमें पहले ही हो गई थी कि ये कौम ठीक नहीं है लेकिन वर्ष 2020 में कोरोना से जब पृथ्वी काँप उठी तो डॉक्टरों की क्रूरता अपने असली रूप में दिखी। यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जिस हॉस्पीटल में माँ को प्रथमतः भर्ती किया गया उसमें उन्होंने कोई केयर नहीं की। पैसा जमा करा लिया और जब यह लगा कि दूसरे हॉस्पीटल में हमें भर्ती करना चाहिए । तो हॉस्पीटल  के डॉक्टरों ने डिस्चार्ज किया और मरीज को अपने हाल पर छोड़ दिया। सबसे बड़ी बात कि मेरे भाई ने जब एंबुलेंस की मदद मांगी तो उन्होंने कोई मदद नहीं की। हॉस्पीटल के सामने दो एंबुलेंस उसी हॉस्पीटल की थी और उन लोगों ने मेरी माँ को एक हॉस्पीटल से दूसरी हॉस्पीटल शिफ्ट करने के लिए मना कर दिया। अंततः एंबुलेंस न मिलने के कारण माँ इस दुनिया में नहीं रहीं।

कोविड का मौत तांडव भारत के अनेकों परिवारों को छिन्न-भिन्न कर दिया। यदि सरकार पहली बार की तरह लॉकडाउन लगा दी होती तो संभवतः इतनी मौतें भारत में न होतीं लेकिन बंगाल चुनाव जीतने की लालच और मध्य प्रदेश में दूसरी बार जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने की महत्त्वकांक्षाओं ने कई घरों को सूना कर दिया। इस सत्य को सरकार भले झुठलाए लेकिन सत्य यही है कि मौतें होती रहीं और सरकार ने अपने साम्राज्य के विस्तार को जरूरी समझ लॉकडाउन को गैर-जरूरी माना। कोविड में जितने लोग काल के गाल में समा गए, उनकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है। संवेदना के नाम पर सिर्फ-ओह शब्द है।

पीड़ा का हर क्षण बहुत भयावह और निरंकुश होता है। भारत के जितने भी परिवारों ने पीड़ा सही है वे इस जिंदगी में कभी भी उस वक़्त को अपने से अलग नहीं कर पा रहे हैं और न ही कर पाएंगे। बस यादें हैं और यादें अपने स्वजनों की उनकी अच्छाई में हमें अपनी ओर खींचती हैं और अपने निकट बनाए रखती हैं। पिताश्री के सम्पूर्ण जीवन की मधुर स्मृतियाँ उनकी अच्छाई में और उनकी अपनी जीवन की गति में देखने को मिलती हैं। वे साधारण जीवन पसंद करते थे। वह सबमें जीवन की जीवंत होने की कामना करते थे। राष्ट्र के हित उनके लिए सर्वोपरि थे। इसलिए वे अपनी सेवा के दौरान अपने दायित्व का निर्वहन अपनी भूख-प्यास भूलकर करते थे। उन्हें यह लगता था कि यदि सभी लोगों के समय से सहयोग हो जाएँ तो वह उनके जीवन का आनंद है। इसके लिए क्या धूप क्या छाँव, क्या गर्मी क्या बरसात। सभी परिस्थितियाँ एक तरफ और दायित्व निर्वहन प्रथम।

अपनी कमाई से दूसरों की मदद उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। वह चाहते थे कि किसी भी आँख में आँसू का कोई स्थान न हो। इसके लिए जिन्हें कोई कभी जरूरत महसूस होती और वह अपनी व्यथा आकर पिताश्री को सुना दिये तो उसके बाद जब तक उन पीड़ितजन को कोई समाधान नहीं दे देते, उन्हें चैन नहीं होती। यह एक जो लगाव है वह आज का इंसान नहीं निभा पा रहा है। लोग दूसरों की समस्याओं से कटते हैं। लोगों की अपने जीवन की प्राथमिकताएं हैं। अपने से ही लोगों को छुट्टी नहीं है लेकिन कुछेक लोग होते हैं जो दूसरों की पीड़ा को अपना समझ सुख-दुःख के भागी बनते हैं। पिताश्री का जीवन कुछ ऐसा ही था। वह हर मनुष्य प्रेम करते थे और लगाव रखते थे।

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वह बहुत दिलचस्प इंसान इसलिए भी थे क्योंकि वह सत्य को ही स्वीकार करते थे। कभी भी झूठ न बोलने की सीख उन्होंने हमेशा मुझे दी। वह चाहते थे कि हमारे घर में चाहे मैं रहूँ या न रहूँ लेकिन सत्य का दीपक जलता रहे। वह देश की छोटी-बड़ी घटनाओं पर अपनी राय रखते थे। वह पार्टी या दलगत चीजों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में बातों को तरजीह देते थे। एक सच्चे नागरिक की तरह जब-जब उन्हें यह लगा कि अमुक लोग गलत सोच रखते हैं और निर्णय भी उनके गलत हैं तो वह दुखी हो जाया करते थे। वह यह चाहते थे कि राष्ट्रहित सर्वोपरि है और उससे कोई समझौता करने की लोग सोच कैसे लेते थे। कंधार की घटना जब हुई थी और कई आतंकवादियों को सकुशल सरकार द्वारा जब पहुंचाया गया तो उन्हें अच्छा नहीं लगा था। वह यह चाहते थे कि किसी भी दशा में समझौतावादी कोई ना बने। किसी भी राष्ट्र में किसी भी नागरिक का महत्त्व बराबर है। वह यदि राष्ट्र के हित के बारे में किसी भी कोने में रहकर राष्ट्र की बात सोचता है तो वह सबसे सच्चा राष्ट्रवादी है। पिताश्री के जीवन की अनेकों बातें हमें उनके भीतर के राष्ट्रवाद को रेखांकित करती हैं। यह इसलिए भी जानना हर किसी आवश्यक है क्योंकि लोग यह सोच लेते हैं कि वह अपने जीवन के बारे में सोचें उन्हें इन बड़ी घटनाओं और राष्ट्र से क्या मतलब है लेकिन ऐसा नहीं है। देखा जाए तो प्रत्येक नागरिक अपने आप में भारत है। यदि एक व्यक्ति किसी की नज़र में भारत नहीं है तो उसे यह समझना होगा कि भारत प्रत्येक वैयक्तिक का समुच्चय है और बिना किसी एक व्यक्ति के महत्त्व के भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोई भी राष्ट्र प्रत्येक वैयक्तिक के महत्त्व से ही निर्मित होता है और इसलिए उसे समय-समय पर अपने परिवेश, समाज और राष्ट्र की चिंता करनी चाहिए। आज पिताजी के पूण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। सच में, उनकी अपनी जिंदगी के फलसफे हमें उनकी राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता और निष्ठा का स्मरण कराता है और यह सीख देता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच से अपने समय को प्रभावित कर सकता है और आने वाली पीढ़ियों को अपने जीवन से संदेश दे सकता है। आज वे नहीं हैं, लेकिन उनकी सोच एक सच्चे भारतीय की परिभाषा है।

बाबूजी अपने समय के महान हस्ताक्षर थे। उन्हें उनके समय का कोई व्यक्ति हो या उनके संपर्क में आने वाला व्यक्ति, बहुत आदर से स्मरण करता है। सत्यनिष्ठ जीवन से लोकप्रियता हासिल होती है कोई उसे जबरदस्ती नहीं प्राप्त कर सकता। पूज्य पिताजी के अपने जीवन का गुण उन्हें महान बनाता है। इसलिए वह आज़ भी सबके द्वारा आदर से स्मरण किए जाते हैं, जो कि मेरे हृदय को गर्व से भर देता है। उन्हें शत-शत प्रणाम।


पता: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 मध्य प्रदेश
मो. 9818759757 इमेल: [email protected]


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