भीड़ बचपन से ही बच्चों को पकड़ लेती है और उसे कौवा बनाने लगती है,

मैंने सुना है, एक हंस जा रहा था उड़ता हुआ अपनी हंसनी के साथ, कि रात थक गया था, एक वृक्ष पर बसेरा किया,। कौवे का दिल आ गया उसकी हंसनी पर। स्वाभाविक। सोचा होगा कौवे ने: हेमामालिनी को कहां उड़ाए ले जा रहे हैं! बच्चू, अब बचकर निकल न सकोगे! कौओं का ही डेरा था उस वृक्ष पर। उसने बाकी कौओं को भी कहा कि इसको निकलने न देंगे! ऐसी प्यारी चीज कहां लिए जा रहा है!

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सुबह हुई, जब हंस उड़ने लगा, तो कौवे ने कहा–ठहरो भाई! वह जो कौआ नेता था, कौओं का, उसने कहा–मेरी पत्नी को कहां लिए जा रहे हो? हंस ने कहा, तुम्हारी पत्नी! होश से बात करो! यह हंसनी है, तुम कौवे हो,…कौवे ने कहा, होश से तू बात कर! क्या काले आदमी की गोरी औरत नहीं होती? और यह रंगभेद नहीं चलेगा। यह वर्णभेद नहीं चलेगा। किस जमाने की बातें कर रहा है? कोई मनु महाराज के जमाने की बातें कर रहा है? माना कि गोरी है ,मगर पत्नी मेरी है! और न हो तो पंचायत बुला ली जाए। तब जरा हंस डरा, क्योंकि पंचायत! तो वे ही कौवे ही थे, वहां तो कोई और हंस तो था नहीं। पंचायत तो तय कर दे। कौओं की पंचायत जुड़ी। और कौओं की पंचायत ने तय कर दिया कि पत्नी कौवे की है। हंस जार-जार रो रहा है! मगर करे क्या? भीड़-भाड़ कौओं की!

तुम्हारे चारों तरफ भी कौओं की भीड़-भाड़ है। उनका सारा उपाय तुम्हें विस्मरण करा देने का है। वे खुद भी भूले हैं, वे तुम्हें भी भूला रहे हैं। भीड़ से जागना पड़ता है। और जो भीड़ से जाग जाए, वही संन्यासी है। और भीड़ के बड़े सम्मोहन हैं। और भीड़ के पास बड़ी ताकत है। बना तो नहीं सकती भीड़ तुम्हें, लेकिन मिटा सकती है। वही उसकी ताकत है।
भीड़ बचपन से ही हर बच्चे को पकड़ लेती है और उसको कौआ बनाने में लग जाती है। लीपो, पोतो, संस्कार दे दो–कोई हिंदू कौआ, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन, कोई बौद्ध–सबको बना दो अलग-अलग ढंग के कौवे। कौन तुम्हें याद दिलाए कि तुम हंस हो! और तुम्हारे ऊपर इतना रंग पोता, इतनी कालिख पोती जाती है कि तुम अगर दर्पण के सामने भी पड़ जाओ तो भी तुम यही सोचोगे कि कौआ ही हूं, यह कोई हंस के ढंग हैं!

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तुम्हारे सारे संस्कार अज्ञानियों के द्वारा दिए गए हैं। इसीलिए तो दरिया जैसे व्यक्ति जब तुम्हें पुकारते हैं तब भी तुम्हें याद नहीं आती। बुद्ध तुम्हें पुकारते हैं और याद नहीं आती। तुम्हारे द्वार पर ढोल बजाए जाते हैं और तुम्हें सुनायी नहीं पड़ते। नहीं कि सुनायी नहीं पड़ते, सुनायी भी पड़ जाते हैं तो भी भरोसा नहीं आता कि मैं और हंस, मैं और मानसरोवर का यात्री! नहीं-नहीं, यह बात किसी और के लिए कही जा रही होगी। यह मेरे लिए सच नहीं हो सकती। मैं तो अपनी कालिख जानता हूं। मैं भी तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी कालिख झूठी है। जरा ध्यान में नहाओ, बह जाएगी। तुम्हारे भीतर का हंस निखर आएगा।

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