कविता : भगवान के घर देर है, अन्धेर नहीं है

कर्नल आदि शंकर मिश्र
कर्नल आदि शंकर मिश्र

फल फूल मिठाई लेकर मंदिर जाते हैं,
तो यह सब पूजा सामग्री कहे जाते हैं,
पूजा के बाद मंदिर से वापस आते हैं,
तो यह सब भोग प्रसाद बन जाते हैं।

                                मंदिर जाने व वापस आने के बीच हुआ
क्या कि सामग्री प्रसाद हो जाती है?
शायद यह अपनी आस्था, मान्यता है,
इसके पीछे अपनी अपनी अवधारणा है।

कविता : मैं कौन हूँ, आप कौन हैं

जीवन की यही आस्था, अवधारणा व मान्यता सामग्री से प्रसाद बन जाती हैं,
अपनी अपनी अनुभूति और अभिवृत्ति,
पूजा सामग्री को भोग प्रसाद मानती है।

                            आस्था, आत्मविश्वास, संघर्ष और
दृढ़ता जीवन की हर परिस्थिति को
अवधारणा व मान्यता में बदल देते हैं,
यही सदक़र्म धर्म को अवलंबन देते हैं।

भगवान के घर देर है, पर अंधेर नहीं है,
आस्था, विश्वास में कोई फेर नहीं है,
उसका संसार एक खुली कारागार है,
समस्त प्राणिमात्र का स्वतंत्र आधार है।

किया है तो बस निभाने का शौक़ है

                                              प्रकृति समक्ष हम कुछ भी क़र्म करें,
स्वतंत्र रहकर हम कोई भी धर्म चुनें,
मानवता सबसे ऊपर मानव ही श्रेष्ठ,
ईश्वर की कृपा बरसे हर पल सचेष्ट।

प्रकृति की गोद, हमारी माँ की ममता
जैसी सबसे श्रेष्ठ है, सबसे सुंदर है,
देवी देवता सारे करते निवास यहाँ,
मानव वेष में सभी लेते अवतार यहाँ।

                                  आदित्य माया मोह के बंधन त्याग,
मानवता धर्म है, मानवता ही क़र्म हैं,
काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार,
अब मानव मात्र में रहें न अवशेष हैं।

 

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