निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।
ऋग्वेद में संदर्भित कर कहा गया है,
दूसरों की निंदा करने से दूसरों का
तो नहीं परंतु निन्दक का खुद का
नुकसान अवश्य ही होता रहता है।
निंदा औरों की करने से मनुष्य की
अपनी बर्बादी की शुरुआत होती है,
अपनी आदत दिन प्रतिदिन औरों की
निंदा करने से बिगड़ती ही जाती है।
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ऐसे व्यक्ति अन्य लोगों के सामने
किसी को बुरा साबित करने के लिए,
चोरी, हिंसा व भ्रष्ट तरीक़े अपनाते हैं,
ऐसे काम करने से भी बाज नहीं आते हैं।
यह कहना बड़े बुजुर्गों का “विनाश
काले विपरीत बुद्धि” ग़लत नहीं है,
निंदा की यही प्रवृत्ति उस निंदक को
विनाश की ओर ही लेकर जाती है।
ऐसे लोगों की आदत हो जाती है,
अच्छे व्यक्ति की भी बुराई करना,
बिना कमी ही कमी बताकर उनका
सारे समाज में अपमान करते रहना।
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निंदा व अपमानित करना, हमारे
शास्त्रों में बहुत बड़ी बुराई माना है,
ऐसे कर्म करने वाले व्यक्ति के लिये
स्वयं को पतन की ओर ले जाना है।
ऐसा व्यक्ति अच्छे कर्मों को भूल
बाकी लोगों से पीछे रह जाता है,
आदित्य अगर आगे बढ़ना है, तो
पर निंदा व अपमान से बचा जाता है।