दसवीं फेल आज घूम रहे हैं,
बीएमडब्ल्यू जैसी लम्बी कारों में,
पढ़े लिखे अब रिक्शा चलाते,
सवारियाँ ढोते दिखते बाज़ारों में।
शिक्षक आज न शिक्षा दे पाते,
चुनाव ड्यूटी में उलझे रहते हैं,
मतदाता सूची में हेर-फेर कर,
नेता नगरी के बन जाते चमचे हैं।
अस्पताल में डाक्टर भी अब
अपने मरीज़ कम ही देखते हैं,
ऊपरी कमाई करने में व्यस्त,
सारा व्यापार कार्य वे करते हैं।
कोरोना गया अब डेंग्यू आया,
अस्पताल में बेड नही है ख़ाली,
नक़ली दवा हर दुकान में मिलती,
तू पात पात, मैं घुमूँ डाली डाली।
वोटों राजनीति में नेता सारे,
कुर्सी की ख़ातिर लड़ते हैं,
जनता का हित न कोई देखे,
अपनी झोली कोठी भरते हैं।
लोकतंत्र के नाम की कुर्सी
अब सबको प्यारी लगती है,
शहरी गड्ढों में सड़कें फैली हैं,
बातें ग्राम-विकास की करते हैं।
किस जमाने में आ गए हैं हम सब
आपस में प्यार व पूरा परिवार नहीं,
देना उधार नहीं, नेता ईमानदार नहीं,
मृतक के कंधे की मदद को कोई नहीं।
बच्चों का बचपन, युवाओं का यौवन,
आँख में पानी, दादी-नानी की कहानी,
आदित्य मैं आज खोजते रह जाता हूँ,
बुजुर्गों के प्रति प्रेम व आदर की वानी।