दूसरा किस्सा है कि महायोगी शंखचूड़ नामक राक्षस ने महर्षि से कृष्णमंत्र पाकर बदरीनाथ में प्रवेश किया। अनुपम सौंदर्यवती तुलसी से मिलने पर उसने बताया कि वह ब्रह्मा की आज्ञा से उससे विवाह करने की निमित्त वहां पहुंचा था। तुलसी ने उससे विवाह कर लिया। वे लोग दानवों के अधिपति के रूप में निवास करने लगे। जब शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत बढ़ गया तो एक दिन हरि ने अपना शूल देकर शिव से कहा कि वे शंखचूड़ को मार डालें। शिव ने उस पर आक्रमण किया। सबने विचारा कि जब तक उसकी पत्नी पतिव्रता है तथा उसके पास नारायण का दिया हुआ कवच है, उसे मारना असम्भव है। अत: ईश्वर ने शंखचूड़ का कवच पहनकर स्वयं उसका सा रूप बनाकर वे उसके घर के सम्मुख दुंदुभी बजाकर अपनी देवताओं पर विजय की घोषणा किया। प्रसन्नता के आवेग में तुलसी ने उनके साथ समागम किया।
तदनन्तर विष्णु को पहचानकर पतिव्रत धर्म नष्ट करने के कारण उसने शाप दिया : “ तुम पत्थर हो जाओ। तुमने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने भक्त के हनन के निमित्त उसकी पत्नी से छल किया है।‘’ शिव ने प्रकट होकर उसके क्रोध का शमन किया और कहा : “तुम्हारा यह शरीर गंडक नामक नदी तथा केशतुलसी नामक पवित्र वृक्ष होकर विष्णु के अंश से बेन समुद्र के साथ विहार करेगा। तुम्हारे शाप से विष्णु गंडकी नदी के किनारे पत्थर के होंगे और तुम तुलसी के रूप में उन पर चढ़ाई जाओगी। शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा था, तुम उसे भूलकर तथा इस शरीर को त्यागकर अब तुम लक्ष्मीवत विष्णु के साथ विहार करो। शंखचूड़ की पत्नी होने के कारण नदी के रूप में तुम्हें सदैव शंख का साथ मिलेगा। तुलसी समस्त लोकों में पवित्रतम वृक्ष के रूप में रहोगी।” फिर शिव अंतर्धान हो गये और वह शरीर का परित्याग करके बैकुंठ चली गई।
कहते हैं तभी से विष्णु के शालिग्राम वाले रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी। तीसरा किस्सा है : श्रीकृष्ण ने कार्तिक की पूर्णिमा को तुलसी का पूजन करके गोलोक में रमा के साथ विहार किया। अत: वही तुलसी का जन्मदिन माना जाता है। प्रारम्भ में लक्ष्मी तथा गंगा ने तो उसे स्वीकार कर लिया था, किन्तु सरस्वती बहुत क्रुद्ध हुई। तुलसी वहां से अंतर्धान होकर वृंदावन में चली गई। इसलिए उन्हें वृन्दा भी कहा गया है। जहां तुलसी बहुतायत से उगती है वह स्थान वृन्दावन कहा जाता है। इसी वृन्दा के नाम पर श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पड़ा। नारायण पुन: उसे ढूंढकर लाये तथा सरस्वती से उसकी मित्रता करवा दी। सबके लिए आनंददायिनी होने के कारण वह नंदिनी भी कहलाती है।
तुलसी पौधे उगाने और सींचने मे बहुत हर्ष तथा रोमांच की अनुभूति होती है। मेरा निजी तजुर्बा है। उस वक्त (1975 जून के) आपातकाल के दौर मे डेढ़ सदी पुराने बड़ौदा केन्द्रीय सेल मे कैद था। खाली समय खूब था। वहाँ उपजाऊ जमीन भी विषाल थी। जेल अधीक्षक श्री पाण्ड्या ने मुझे तुलसी के बीज उपलब्ध कराये। दिन मे फुर्सत ही थी। लाइब्रेरी से मंगाई पुस्तको को पढ़ने के समय के बाद बाकी तुलसी का पौधा उगाने मे लग जाता था। दो ढाई महीनो बाद देखा कि हजारो पौधा लहलहाने लगे। मन बड़ा मुदित हुआ। फिर वह टूट गया क्यों कि दिल्ली के तिहाड़ जेल में ले जाया गया। वहाँ पौधे लगाना संभव नहीं था। मगर तुलसी माँ की ही अनुकंपा थी कि भारत में राजनीतिक दृश्य बदला। लोकसभा चुनाव में मोरारजी देसाई और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जनता पार्टी सत्ता (1977) में आई। किन्तु रिहा होकर भी मैंने अपनी पत्नी डॉ. सुधा राव के विशाल रेल बंगले (बन्दरियाबाग, लखनऊ) मे तुलसी उगाया। अत्यधिक संतोष हुआ। नैसर्गिक आह्लाद भी।
K Vikram Rao
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