नया लुक ब्यूरो
रांची। झारखंड हाईकोर्ट ने रूपेश पांडेय हत्याकांड की CBI जांच की मांग को लेकर दाखिल याचिका पर अपना फैसला सुना दिया है। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में जो बातें कही हैं, वे काफी गंभीर हैं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि झारखंड पुलिस ने रूपेश पांडे की हत्या के आरोपी व्यक्तियों को बचाने की कोशिश की। इसलिए अदालत निष्पक्ष जांच और न्याय के लिए इस मामले को CBI को सौंपना उचित समझती है।
किप्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस स्वतंत्र रूप से मामले की जांच नहीं कर रही है और कुछ लोगों के इशारे पर प्रभावित हो रही है। घटना इतनी भयावह थी कि मानवाधिकार आयोग और बाल आयोग ने भी संज्ञान लिया है और उन्होंने अपने प्रतिनिधि को हजारीबाग जिले में भेज दिया है। अदालत ने आश्चर्य जताया है कि भले ही 90 दिनों के भीतर आरोप पत्र प्रस्तुत नहीं किया गया हो, किपुलिस के उच्च अधिकारियों ने उस मामले की समीक्षा नहीं की है, जो संदिग्ध है। अदालत ने मॉब लिंचिंग के बढ़ते खतरे पर भी काफी गंभीर टिप्पणी की है। अदालत ने बंगाल में चुनाव के बाद की हिंसा की श्रृंखला का भी हवाला दिया, जहां एक विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई थी और अदालत ने निष्पक्ष जांच के लिए CBI जांच का आदेश दिया था। यह आदेश न्यायमूर्ति संजय कुमार द्विवेदी की एकल पीठ ने मृतक उर्मिला देवी की मां की ओर से दायर आपराधिक रिट याचिका 110/22 पर सुनवाई करते हुए पारित किया है। नाबालिग रूपेश पांडे की इस साल दो फरवरी को हजारीबाग जिला के बरही थाना अंतर्गत दुलमहा गांव में हत्या कर दी गई थी, जहां वह देवी सरस्वती के विसर्जन जुलूस में शामिल होने के लिए गया था।
पुलिस ने मात्र पांच लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की
अदालत ने कहा कि पुलिस ने केवल पांच लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया है। जबकि 27 नामजद आरोपी हैं। स्टेट अदालत को जल्द से जल्द जांच पूरी करने के लिए उठाए गए कदमों के बारे में बताने में टालमटोल करता रहा। इसके अलावा, अदालत ने मुस्लिम सदस्य द्वारा दायर की गई काउंटर प्राथमिकी की वास्तविकता पर भी संदेह किया। यह रूपेश पांडे की पीट-पीट कर हत्या करने के दो दिन बाद दायर की गयी थी। ऐसे मामले में जो मॉब लिंचिंग के माध्यम से हुआ है, उसके वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने जांच को जल्द से जल्द समाप्त करने के लिए क्या कदम उठाए हैं, इसका खुलासा जवाबी हलफनामे में नहीं किया गया है। जब घटना छह फरवरी को हुई और पूरा पुलिस प्रशासन के साथ-साथ जिला प्रशासन हरकत में आया, तो दूसरे समुदाय द्वारा आगजनी का मामला क्यों दर्ज नहीं किया गया। पुलिस और दूसरे समुदाय की शिकायत पर एक और FIR आठ फरवरी को पंजीकृत किया गया था।कि
अदालत ने कहा कि मृतक के परिवार ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मुलाकात की और CBI जांच की मांग की। राज्य सरकार द्वारा दायर एक जवाबी हलफनामे का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि राज्य ने यह साबित करने की कोशिश की कि जांच सही दिशा में चल रही है। कि जवाबी हलफनामे के पैराग्राफ 59 में कहा गया है कि जांच एजेंसी को आरोपी से पूछताछ में अपने तरीके से आगे बढ़ना है और किसी विशेष मामले में अपनाई जाने वाली जांच के दौरान इसे छोड़ दिया जाना चाहिए। जांच एजेंसी का विवेक प्रश्न बना रहता है कि यदि जांच अधिकारी द्वारा न्यायालय के समक्ष हलफनामे पर ऐसा बयान दिया जा रहा है। जो यह सुझाव देता है कि जांच अधिकारी को यह कहना है कि जांच को उक्त आईओ के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। जैसे सिद्धार्थ वशिष्ठ उर्फ मनु शर्मा के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर कोर्ट ने नकार दिया है।
यह कहते हुए कि पुलिस द्वारा कुछ छिपाया जा रहा है। अदालत ने कहा कि यदि संवैधानिक अदालतें इस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं कि किसी विशेष मामले को विशेष एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, तो उसे ऐसा करने की शक्ति मिली है। अदालत ने माना कि CBI पर अत्यधिक बोझ है और अदालत को मामले को बार-बार CBI को नहीं सौंपना चाहिए। और यह असाधारण परिस्थितियों के अभ्यास में होना चाहिए, जहां विश्वसनीयता प्रदान करना और जांच में विश्वास पैदा करना आवश्यक हो या जहां पूर्ण न्याय करने और मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए ऐसा आदेश आवश्यक हो।
कोर्ट ने बंगाल हिंसा मामले का संदर्भ दिया
न्यायमूर्ति संजय द्विवेदी ने अपने आदेश में कहा कि पश्चिम बंगाल में भी ऐसी ही स्थिति थी, जहां एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की हत्या के समय हंगामा हुआ था। यह ऐसी ही स्थिति थी जब पीड़ित परिवार को राज्य पुलिस पर भरोसा नहीं था।