NAYA LOOK EXCLUSIVE: यूं ही कोई मुलायम नहीं होता…

नवम्बर 2019 के अंक में प्रकाशित हुई थी यह स्टोरी

हर बार कोई न कोई राजनीतिक सबक छोड़ देते हैं नेताजी

भाई के साथ पुत्र के खाते में समझ और सीख की भरते हैं किस्त


विजय पांडेय


लखनऊ।  देश की 16वीं लोकसभा का अंतिम सत्र आहूत था और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व समाजवादी पार्टी (सपा) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने संसद भवन में 13 फरवरी को अपने भाषण में कहा कि वो चाहते हैं कि मोदी फिर से देश के प्रधानमंत्री बनें। उन्होंने यहां तक कह डाला कि मेरी कामना है कि जितने  सदस्य हैं, दोबारा फिर जीत जाएं। मैं ये भी चाहता हूं, हम लोग तो बहुमत से नहीं आ सकते हैं, प्रधानमंत्री  आप फिर बने प्रधानमंत्री। हम चाहते हैं जितने सदन में बैठे हैं सब स्वस्थ रहें, सब मिलकर फिर सदन चलाएं। इतना कहकर वह रुक जाते तो गनीमत था लेकिन वह रुके नहीं और बेधड़क कई बातें कहते गए। उन्होंने कहा मैं प्रधानमंत्री  को बधाई देना चाहता हूं। मोदी आपने भी सबसे मिलजुल करके और सबका काम किया है। ये सही है कि हम जब-जब मिले, किसी काम के लिए कहा तो आपने उसी वक़्त आर्डर किया। मैं आपका यहां पर आदर करता हूं, सम्मान करता हूं, कि प्रधानमंत्री  ने सबको साथ लेकर चलने का पूरा प्रयास किया।

राज्यसभा के पूर्व महासचिव व रिटायर IAS  अफसर आरसी त्रिपाठी कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव बिना अर्थ के कोई बात नहीं कहते। उन्होंने जनता का नब्ज टटोल लिया होगा कि इस बार किसकी सरकार आने वाली है, इसलिए उन्होंने दिल खोलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे गढ़े। कुछ उसी तर्ज पर मुलायम सिंह यादव अपने जन्म दिन के मौके पर युवाओं को सीख और नसीहतें दीं। उनके जन्म दिन समारोह के अवसर पर जुटे युवा नारा लगा रहे थे ‘जिसका जलवा कायम है- उसका नाम मुलायम है।’  नेताजी ने युवाओं को टोका। एक बार नहीं, बल्कि कई बार। बार-बार कहा, कुछ ऐसा काम करो, जिससे मेरे जैसा तुम्हारा सम्मान हो। मेरी तरह तुम्हें भी लोग सम्मानित करने के लिए बुलाएं। साथ ही उन्होंने पुत्र अखिलेश के लिए पुराने नेताओं को त्याग करने की सीख भी दी।

समय देखकर राजनीति का रुख बदल देने वाले नेताजी ने अपने भाषण में जोर देकर कई बार कहा कि न्याय का साथ, अन्याय का विरोध करो। इस बात के तह तक जायें और लहजे को गंभीरता से समझें तो मुलायम का मोदी यानी बीजेपी के लिए मुलायम रुख साफ नजर आता है। इससे पहले भी वे बीजेपी के नामी नेताओं के समर्थन में दिखे हैं, इस वाक्य से उन्होंने बड़ी पार्टियों से सम्बन्ध ठीक करने की सलाह बेटे यानी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी दी।   लोकदल के विधायक के रूप में सियासत में कदम रखने वाले मुलायम सिंह ने साल 1992 में समाजवादी पार्टी की नींव रखा था। राजनीति में उनकी तरह मुलायम और यारों का यार होना आज किसी नामी राजनेता के लिए कहां आसां है। छोटे से गांव सैफई के साधारण से परिवार के मुलायम जब लोहिया के संपर्क में आये तो उन्होंने राजनीति में खूब काम किया। जिसने न केवल उनको राजनीतिक पथ पर आगे बढ़ाया बल्कि उनको बड़े नम्र राजनेता के रूप में भी निखारा। डॉ. राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह के सानिध्य में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने वाले मुलायम सिंह की राष्ट्रीय राजनीति में खासी दखल है। इसकी पृष्ठभूमि में उनकी दीर्घकालीन संघर्ष यात्रा है। वे खुद कहते हैं कि संकल्प, साहस और संघर्ष के बूते ही सफल हुआ जा सकता है।

उनके पूरे जीवन पर गौर करें तो पाएंगे कि उनकी ताकत धारा के विपरीत तैरने का साहस है। जब-जब वे चुनौतियों से रूबरू होते हैं, वे शक्तिमान की भूमिका में उतर आते हैं। जब वे कोई साहसिक निर्णय लेते हैं तब उनका व्यक्तित्व अलग निखरता है। साल 1953 में दलित गंगा प्रसाद जाटव के घर खाना खा आए तो सामाजिक बहिष्कार की नौबत आ गई। एक बाल्मीकि के घर भी बेहिचक दावत खा आए। यह तबकी बात है जब जाति की जंजीरें हिलाने की कोई हिम्मत नहीं करता था। यह बड़ी जोखिम का काम था। उनकी यही नम्रता तब भी देखने को मिली जब उनके परिवार में विरासत की जंग हो रही थी। चाचा-भतीजे के बीच फंसें नेता जी (मुलायम सिंह यादव) की मीडिया में चहुओर चर्चा जोरों पर थी। सत्ता के उत्तुंग शिखर पर पहुंच चुकी समाजवादी पार्टी गर्त की ओर जा रही थी, उस समय पुत्र-भाई में समंजस्य बिठाकर खुद को मुलायम रखना शायद मुलायम के लिए ही आसां था। पार्टी के संरक्षक बन चुके नेता जी ने बीमारी से उबरने के बाद अपने 81वें जन्मदिन पर भी खुद के मुलायम होने का सबूत दिया।

नहीं रहे धरती पुत्र मुलायम सिंह यादव, मेदांता में ली अंतिम साँस

जहां उन्होंने न सिर्फ बीजेपी के लिए अपने मन के कपाट खुले होने का संकेत दिये बल्कि युवाओं की आड़ में अखिलेश को भी समर्थन और सीख देने का इशारा किया। ‘अब मुलायम का नहीं, जलवा युवाओं का है।’ से उन्होंने अखिलेश यादव के सभी खास करीबी (जावेद आब्दी, नवेद सिद्दीकी, अनुराग भदौरिया, राहुल भसीन, सुनील साजन, अभिषेक मिश्र) युवा की श्रेणी में ही तो आते हैं। सधे शब्दों में नेता जी ने कहा कि सपा पार्टी अब बढ़ती उम्र के मुलायम से नहीं चल पाएगी। अब पार्टी के प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूपों से सर्वे-सर्वा अखिलेश ही हैं। उम्र कुछ भी हो लेकिन मेन रोल खोने का दर्द तो हर उस दिल को होता ही है जो बरसों से रीड़ की हड्डी होने का दायित्व निभा रहे हैं। फिर भी, नेता जी ने इन सबको स्वीकारते हुए अपनी मुलायमता को बरकरार रखा। उन्होंने अखिलेश को इशारों में सबके सामने सलाह भी दी कि ऐसा करो कि जैसा सम्मान मेरा होता है, वैसा तुम्हारा भी हो।

अब परिवार में ही उलझे नेताजी

मुलायम सिंह यादव ने राजनीति का बड़ा लम्बा सफर तय किया है। बार-बार साथियों को बदला और समय-समय पर उन्हें धोबी पाट भी लगाया है। राजनीतिक अखाड़े में भी वह दंगल की शैली में नजर आते रहे हैं। कुछ दिनों तक उनका अखाड़ा पूरा देश था, लेकिन अब वह परिवार में ही जंग हैं। जायज है इस जंग में जोर-आजमाइश, चित-पट और नूराकुश्ती का लम्बा दौर हो सकता है। एक राजनीतिक विश्लेषक की माने तो चरखा दांव और धोबीपाट के माहिर मुलायम सिंह इस दंगल में अपना ताज उसी को सौंपेंगे, जो बिल्कुल उनके मुफीद हो। अब इसके लिए वह कोई भी दांव आजमा सकते हैं यानी वह किसी को भी पटखनी दे सकते हैं।

उनका परिवार सूबे में सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार माना जाता है। पिछले पंचायत चुनावों में इनके परिवार के तीन और सदस्यों सक्रिय राजनीति में उतर आए। तीन नए सदस्यों में सपा मुखिया के भतीजे अंशुल यादव, भतीजी संध्या यादव तथा एक रिश्तेदार वंदना यादव शामिल हैं। संध्या सांसद धर्मेंद्र यादव की बहन हैं, जबकि अंशुल यादव, राजपाल और प्रेमलता यादव के बेटे हैं। बीजेपी के पूर्व एमएलसी विंध्यवासिनी कुमार कहते हैं कि राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने की शुरुआत वैसे तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने ही की थी, लेकिन खुद को लोहिया का शिष्य कहने वाले मुलायम सिंह ने इसे खूब आगे बढ़ाया।

एक बार पहले भी टूट चुकी है ‘साइकिल’

कहते हैं इतिहास बार-बार खुद को दोहराता है। जिस तरह से उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को नियंत्रित करने वाले मुलायम सिंह यादव के परिवार में उठापटक चल रही है, उसने दो दशक पहले एनटी रामाराव परिवार में चली उथल-पुथल की यादों को फिर से ताजा कर दिया है। दोनों परिवारों के झगड़ों में कई समानताएं हैं। यहां बेटे ने पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ झंडा उठा लिया है दो वहां दामाद चंद्रबाबू नायडू ने यह काम किया था। तब एनटी रामाराव की पार्टी का चुनाव चिन्ह भी साइकिल ही था।
…तो कार्यकर्ताओं की दो पल की खुशी हो गई काफूर

एक दिन पहले जसवंतनगर से खबर आई कि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुखिया शिवपाल यादव फिर से समाजवादी कुनबे में शामिल होना स्वीकार कर सकते हैं। उनका यह बयान तेजी से वायरल हो रहा था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी से उन्हें कोई खास लगाव नहीं है, लेकिन सत्ताशीर्ष पर समाजवादी ही रहें। लेकिन दूसरे ही पल अखबारों में बड़े-बड़े हरफों में बयान छपा कि- भट्ठा मुंशी को नेताजी ने मालिक बना दिया। पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव पर की गई उनकी इस टिप्पणी के कार्यकर्ताओं की खुशी कुछ पल में ही उड़ गई।

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