इस्लामिस्टों से कब मुक्त होंगी कांग्रेस की विदेश नीति?

के. विक्रम राव

छः दशक बीते। लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ. जीएन धवन और प्रोफेसर पीएन मसालदान ने मुझे एम.ए. में पढ़ाया था कि हर गणराज्य की विदेश नीति सार्वभौम और स्वतंत्र होनी चाहिए। फिर “टाइम्स आफ इंडिया” में सात प्रदेशों में संवाददाता का काम करते मैंने पाया कि आंचलिक सियासी स्वार्थ बहुधा राष्ट्रनीति निर्धारित करते हैं। मसलन श्रीलंका के प्रति विदेशनीति को द्रमुक दल तय करते रहे। सरकारें गिरा दी थीं। एम. करुणानिधि और जे. जयललिता ने। उत्तर अमेरिका और कनाडा पर नजरिया भारत के खालिस्तान-समर्थक प्रभावित करते रहे। देश के मुसलमान तो अरब देशों के प्रति नीति पर दबाव डालते रहते हैं।

अतः शायद वोटरों को लुभाना ही यकीनन कांग्रेस की प्राथमिकता रही है। वर्ना पार्टी ने परसों (8 अक्टूबर 2023) अपनी कार्यकारिणी के प्रस्ताव में आतंकी इस्लामी गिरोह हमास द्वारा इजराइली जनता पर अंधरे में पांच हजार राकेट दागने की निंदा की होती। अर्थात वह भारत के मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहती। हालांकि नरेंद्र मोदी ने राजधानी तेल अवीव (मई 2001) में जाहिर कर दिया था कि वे मुस्लिम वोट बैंक के कैदी नहीं हो सकते। यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारत की विदेश नीति का कोई भी आतंकी गुट भयादोहन नहीं कर सकता।

याद कर लें। संयुक्त राष्ट्र संघ में 1949 में इस्राइल को सदस्य बनाने का प्रस्ताव आया था। जवाहरलाल नेहरु के आदेश पर भारत ने इस्राइल के विरुद्ध वोट दिया। सारे इस्लामी राष्ट्र गदगद थे। मगर इन्हीं इस्लामी राष्ट्रों ने कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया था। एक दकियानूसी मजहबी जमात है ”आर्गेनिजेशन आफ इस्लामी कंट्रीज।” जब मुस्लिम फिलीस्तीन का विभाजन कर नये राष्ट्र इस्राइल का गठन हो रहा था तो इन सारे मुस्लिम देशों ने जमकर मुखालफत की थी। मगर जब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा विशाल भारत का विभाजन कर पाकिस्तान बन रहा था तो इन्हीं इस्लामी राष्ट्रों ने उस बटवारे का स्वागत किया था। आज तक कश्मीर को ये इस्लामी राष्ट्र-समूह पाकिस्तानी ही मानता है।

एक खास बात। जितने भी अरब राष्ट्र हैं जो इस्राइल पर वीभत्स आक्रमण कर चुके हैं, वे सभी निजी तौर पर इस्राइल से तकनीकी और व्यापारी संबंध कायम कर रहे है। इन कट्टर इस्लामी देशों की लिस्ट में हैं मोरक्को, बहरेइन, जोर्डन, अबू ढाबी, संयुक्त अरब अमीरात, सूडान इत्यादि। प्रथम है मिस्र् जिसके नेता कर्नल जमाल अब्दुल नासिर। उन्होंने सबसे पहले (7 जून 1967) को संयुक्त अरब देशों की ओर से इस्राइल पर हमला बोला था। पराजित हुये थे। सभी अचरज में हैं कि कम्युनिस्ट चीन जो आज इस्लामी देशों का भाई बनता है, उसने भारत द्वारा (29 जनवरी 1992) मान्यता देने के माह भर पूर्व ही इस यहूदी देश को मान्यता दे दी थी।

गत सप्ताह कुछ मीडिया-चैनलों ने दर्शाया कि अटल बिहारी वाजपेई सदैव इजरायल के खुले समर्थक रहे। तब 1977 मोरारजी देसाई वाली जनता पार्टी की सरकार थी। वाजपेयी विदेश मंत्री थे। इसराइल के विदेश मंत्री मोशे दयान दिल्ली आये थे। अगस्त माह में लुकते छिपते, छद्म वेश में। उनकी मशहूर कानी आंख जो सदा ढकी रहती थी, निजी पहचान बन गई थी। निशा के अंधेरे में मोशे दयान की अटल बिहारी वाजपेयी से गुप्त स्थान पर भेंट हुई। मोरारजी देसाई से भी मोशे दयान अनजानी जगह वार्ता हेतु मिले। पर जनता पार्टी के इस प्रधानमंत्री के कड़े निर्देश थे कि मोशे दयान से भेंट की बात पूरी तरह से रहस्य रहे। “वर्ना मेरी सरकार ही गिर सकती है।

दो गणराज्यों के इन प्रधानमंत्रियों की काया-भाषा (बाडी लेंगुयेज) संकेत देती है। गत वर्षों में नरेंद्र मोदी और नेतनयाहू ने बेनगुरियन विमान स्थल पर स्नेह की प्रगाढता पेश की। समूची काबीना बैठक छोड़कर एयर इंडिया के विमान की बाट जोहे ? राष्ट्रपति रेवेलिन से किसी ने पूछा कि सारे नियमों को तोड़कर ऐसा क्यों ? उन्होंने कहा : “शिष्टता महज़ एक औपचारिक रीति है। दोस्तों से औपचारिकता कैसी ? मोदी मित्र हैं।” मोदी ने ”श्लोम“ उच्चारण किया, जिसके हीब्रयु भाषा में अर्थ है ”शुभम“ और भारत में सलाम। श्लेषालंकार का मोदी ने नमूना पेश किया यह कहकर कि ”ई“ माने इण्डिया और ”ई“ माने इसराइल। नेतनयाहू ने कह भी दिया कि भारत तथा इसराइल विश्व का जुगराफिया बदल सकते है। यह गठजोड़ जन्नत में रचा गया है।” हीब्रयू में नेतनयाहू के अर्थ है जबरदस्त जीत। संस्कृत में पुरूषों में श्रेष्ठ को नरेंद्र कहा जाता है। हालांकि सोनिया गांधी (9 दिसंबर 1946) के पूर्व का भारतीय इतिहास से अनभिज्ञ थी क्योंकि तब वे जन्मी नहीं थीं। उनके पति के नाना जवाहरलाल नेहरू ने 1950 में इसराइल को एक गणराज्य के रूप में मान्यता दे दी थी। इस भारतीय प्रधानमंत्री ने बांदुग (हिंदेशिया) सम्मेलन में इजरायल को आमंत्रित किया था। हालांकि दौत्य संबंध कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने स्थापित किया था।

राजीव गांधी 1985 में संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक आम सभा में इसराइली प्रधानमंत्री से मिले। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की इसराइली प्रधानमंत्री से यह पहली मुलाक़ात थी। कहा जाता है कि उस वक़्त पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम से भारत चिंतित था। इसलिए इसराइल के साथ जाने में संकोच को छोड़ना ठीक समझा। कांग्रेस पार्टी की एक त्रासदी रही कि वह प्रदेशीय दलों के दबाव में अपनी विदेश नीति बनाती-बदलती रही। मसलन उत्तरी श्रीलंका के हिंसक विद्रोह लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम ने राजीव गांधी की दक्षिण एशियाई नीति पर बहुत दबाव डाला था। सोनियापति राजीव ने इसका खामियाजा भुगता। लिट्टे ने उनकी हत्या कर दी थी। अचरज होता है कि कांग्रेस पार्टी 75 साल बाद भी इस्लाम के चंगुल से निकल न सकी। वोट बैंक जो ठहरा !

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