पितरों की मुक्ति हेतु गया श्राद्ध

हर पितृपक्ष में जुटते हैं श्रद्धालु

पांच दिनों  तक नित्य पिंडदान

सीता ने दिया बालू का पिंडदान

पाचो पांडव ने किया पितृ श्राद्ध

बोधगया में भी होता है पिंडदान

गयासुर के शरीर पर पिंडदान


बलराम कुमार मणि त्रिपाठी
बलराम कुमार मणि त्रिपाठी

लखनऊ। देश के बिहार प्रांत के गया धाम मे फल्गु नदी के किनारे विष्णुपद मंदिर है। जो दुनिया का अकेला मंदिर है ,जहां श्रीहरि विष्णु के चरणों के दर्शन होते है। यहां के पुजारी शाकद्वीपीय ब्राह्मण हैं जो पूजा अर्चना आदि करते हैं। आश्विन कृष्ण पक्ष मे महालय लगते ही पितृपक्ष में गया हेतु श्रद्धालुओ का जाना शुरू होगया है। जहां पितरों की मुक्ति लाए पिंडदान करेंगे। गया में कभी श्रीरामजी के साथ सीता ने जाकर पिंडदान करना चाहा। समय पर सामग्री न आने पर सीता ने बालू  का पिंडदान किया। वहीं द्वापर में पा़डवोंनै आकर भी पिंडदान कर पितृ क्रिया संपन्न की थी।

विष्णुपद मंदिर
विष्णुपद मंदिर

इस मंदिर का निर्माण कब हुआ,कहा नही जासकता पर मंदिर की वर्तमान संरचना का निर्माण इंदौर की शासक देवी अहिल्या बाई होल्कर ने सं 1787 में फल्गु नदी के तट पर करवाया था। विष्णुपद मंदिर के दक्षिण पश्चिम से एक किमी की दुरी पर ब्रह्मजूनि पहाड़ी है जिसके शीर्ष तक जाने के लिए पत्थर की 1000 सीढ़ियां है। यहाँ आने वाले पर्यटक ब्रह्मजूनि पहाड़ी के शीर्ष पर अवश्य जाते है ताकि वे मंदिर के अनुपम दृश्य को ऊपर से देख सके। इस मंदिर के निकट कई छोटे छोटे मंदिर मौजूद है।

गयासुर के नाम पर है गया तीर्थ..
गयासुर के नाम पर है गया तीर्थ..

गयासुर नाम का एक दानव था, जिसने बहुत घोर तपस्या की थी और वरदान माँगा कि जो भी उसे देखे उसे मोक्ष की प्राप्ति,इससे लोग मोक्ष को आसानी से प्राप्त कर लेंगे। अनैतिक व्यक्ति जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया था को रोकने के लिए भगवान विष्णु ने गयासुर से कहा की तुम पृथ्वी के नीचे चले जाओ और उन्होंने अपना दाहिना पैर असुर के सिर पर रख दिया। गयासुर को पृथ्वी की सतह के नीचे धकेलने के पश्चात, भगवन विष्णु के चरणों के निशान सतह पर रह गए जो आज भी इस मंदिर में मौजूद है। चरणों के इस निशान में नौ विभिन्न सूचक है जैसे शंख, चक्र और गदा आदि चिह्न है। गयासुर को पृथ्वी के नीचे धकेले जाने पर भी भोजन के लिए निवेदन करता रहता था। भगवान विष्णु ने उसे आश्वस्त किया कि प्रतिदिन कोई न कोई तुम्हे भोजन अवश्य देगा। उसने नित्य एक मुंडी और एक पिंडी मा़ंगा। जो भी ऐसा करता है उसकी आत्मा सीधे स्वर्ग को जाती है। कहा जाता है जिस दिन गयासुर को भोजन नहीं मिलेगा उस दिन वो धरती के भीतर से बाहर आ जायेगा।तब से नित्य समीप बने अक्षयवट के पास बने श्मशान पर शव जलता है और पिंडदान होता है.

पौराणिक_कथा

ऐसा माना जाता है की इस स्थान पर भगवान बुद्ध ने छः वर्ष तक योग साधना की थी। कुछ ही दूरी पर बोधगया है। जहां भगवान बुद्ध का मंडपम बना है‌। यहां भी पिंडदान किया जाता है‌।

श्रीविष्णु के चरण चिह्न…
श्रीविष्णु के चरण चिह्न…

विष्णुपद मंदिर के भीतर, भगवान विष्णु का 40 सेमी लम्बा पदचिह्न है जो एक ठोस चट्टान पार बना हुआ है और इसके चारो ओर चांदी से जड़ा बेसिन है। वहां एक सोने से बन झंडा और सोने से बना कलश है जो मंदिर के शीर्ष पर मौजूद है और हमेशा चमकता रहता है। बताते हैं कि बहुत पहले दो चोरो ने मंदिर के शीर्ष पर से सोने के झंडे और कलश को चुराने का प्रयास किया था। परन्तु दोनो‌ पत्थर होगए एक चोर तो मंदिर के शीर्ष पर पत्थर बन लटक गया और दूसरा पत्थर ज़मीन पर गिर गया।

श्राद्ध क्यों करें?

यश, मान-सम्मान और धन-सम्पति देवी-देवताओं के कृपादृष्टि का फल है। परन्तु विवाह होना, संतान होना और कुटुम्ब में भाई-चारा होना – पितरों के आशीर्वाद का फल है। हमारे पूर्वज – हमारे गुजरे हुये प्रियजन अनैमितिक आत्माओं के रूप में पितर-लोक में रहते है। अगर हम निरन्तर श्राद्ध, दान, पुण्य और उनकी शाँति के लिये प्रार्थना करते है तो समय-समय पर वो हमारे कुटुम्ब-परिवार की सुख-शाँति का आशीर्वाद देते है। पारिवारिक वृद्धि के लिये वे स्वयं भी हमारे परिवार में जन्म लेते है।

कहां है पितृलोक?

बताते हैं कि चंद्रमा के ऊपर पितृलोक है जिसके पांच आयाम है। पितृ-लोक-पाँचवे आयाम में स्थापित है। हम मनुष्य तीसरे आयाम में है। हम पितरों को नही देख सकते, लेकिन वे हमको देख सकते है। पारिवारिक वृद्धि के लिये वे हमारी सहायता कर सकते है। पेड़ पौधे पहले आयाम मे,पशुपक्षी दूसरे आयाम मे,मनुष्य तीसरे आयाम मे,चौथे आयाम मे प्रेतात्माये तथा पांचवे आराम मे पितर निवास करते हैं। चंद्रमा के परिक्षेत्र में स्थित पेड़-पौधे पहले आयाम में पनपते है। धूप, हवा और जल से पोषण पाते है। ये अगर उन्हें ना मिले तो सूख जायेंगे अथवा नष्ट हो जायेंगे। अपने पोषण के लिये- ये स्वयं कुछ नही कर सकते। इसके लिये उन्हें दूसरे आयाम में जाना पड़ेगा जहां उन्हें पोषण के आवश्यक तत्व मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें दूसरे आयाम का पता ही नही है।

दूसरे आयाम का पता – जीव-जन्तु, पशु पक्षी और जानवरों को है- जो अपने पालन-पोषण के लिये दूर-दूर तक जाते हैं। जहां तक खाना मिलता है- चलते चले जाते और अगर खाना इन्हें ना मिले तो-ये नही जानते कि-खाना कैसे प्राप्त करना है?  ये उपलब्ध खानपान पर ही निर्भर रहते हैं।

क्योंकि – ये तीसरे आयाम को नही जानते , जहां विभिन्न संसाधनों से पालन-पोषण के लिये खान-पान तैयार किया जा सकता है। ये तीसरा आयाम मनुष्यों का है जो रचनात्मक प्रवृति के होते है और प्राकृतिक संसाधनों से अपने जीवन यापन को सरल बनाते हैं। खानपान हो याँ संसाधनों का उपयोग – इसस्थल का मूलमंत्र है, शक्ति अर्जित करना। फिर – वो पेड़-पौधे हो, पशु-पक्षी हो याँ मनुष्य हो। सभी को शक्ति चाहिये। लेकिन पेड़-पौधे और पशु-पक्षी तो केवल जीवन-यापन के लिये ही खानपान के रूप में शक्ति अर्जित करते है जब कि मनुष्य अति-महत्वाकांक्षी है और रचनात्मक भी है। उसकी शक्ति की महत्त्वाकांक्षा उसके जीवन-यापन से अधिक की है। वो अपनी सीमाओं से आगे जाकर प्रकृति पर नियंत्रण करना चाहते है। जिसमे उसे शक्ति की असीम संभावनायें दिखाई देती है। वो निरन्तर उन्नति करते चला जाना चाहता है-जिससे उसे और शक्ति मिलती चली जाये।

लेकिन फिर-उनका सामना समय से होता है। वो समय को समझ नही पाते उसकी गति को नियंत्रित नही कर पाते है। ये चौथा आयाम है। यहां भौतिक-जगत का कोई नियम नही चलता यहां तक की भौतिक शरीर भी नही चलता – ये सूक्ष्म-जगत है। यहां सूक्ष्म शरीर धारी ही विचरण कर सकते है। मृत्यु के तत्काल बाद प्रेत योनि मिलती है‌। सभी जीव- शरीर त्यागने के बाद इसी चौथे आयाम में प्रवेश करते है। ये समय की धारा होती है।  जिसके उस पार पाँचवा आयाम है। मनुष्य – जब शरीर त्यागता है और इस चौथे आयाम में प्रवेश करता है। तब उसके परिजन उसका अंतिम संस्कार करते है। उसके लिये पूजा-प्रार्थना करते हैं। ताकि वो इस आयाम से परिष्कृत होता हुआ समय की इस धारा को पार कर ले और पितर-लोक की ओर प्रस्थान करे तथा वहां नैमित्तिक आत्माओं के संसर्ग में रहे और फिर से कुटुम्ब-परिवार में जन्म ले सके।

भटकती आत्मायें..
भटकती आत्मायें..

चौथे आयाम में असंख्य आत्मायें विचरण करती रहती हैं। इनमे हज़ारों वर्षों से विचरण करती विभिन्न प्रेतात्मायें भी होती है। जिनका अंतिम संस्कार नही हुआ, जिनके लिये किसी ने श्राद्ध नही किया, किसीने पूजा-प्रार्थना नही की-ऐसी असंख्य आत्मायें इसमें भटक रही हैं।

जैसे – पहले आयाम के पेड़-पौधे, मनुष्य को फल, फूल, पत्ते और लकड़ी निरंतर देते रहते है और बदले में मनुष्य उन्हें बनाये रखने का प्रयास करते रहते है ।

वैसे ही – अगर मनुष्य निरन्तर अपने पूर्वजों के श्राद्ध, दान, पुण्य और पूजा-प्रार्थना करता है। तब पांचवे आयाम में स्थापित पितृ-लोक से पितर भी मनुष्य को, उसके कुटुम्ब परिवार को और उसके आसपास शाँति को बनाये रखने का प्रयास करते हैं।

सर्व पितृ अमावस्या का महत्व…

सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम ‘अमा’ है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चंद्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांति काल व्यतिपात, गजच्छाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।

पितरों का परिचय…

पुराण केअनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस समूह का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस समूह का प्रधान यमराज है।

चार व्यवस्थापक : यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्य वाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस समूह के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो समूह है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।

दिव्य पितर समूह के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।

सूर्य किरण का नाम अर्यमा : देसी महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैं- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।

श्राद्ध या तर्पण…

पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात ही स्वयं पितृ तर्पण किया जाता है। पितर चाहे किसी भी योनि में हों वे अपने पुत्र, पु‍त्रियों एवं पौत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश स्वीकार करते हैं। इससे पितृगण पुष्ट होते हैं और उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है। यह कर्म कुल के लिए कल्याणकारी है। जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं। पूरे वर्ष वे लोग उनके श्राप से दुखी रहते हैं। पितरों को दुखी करके कौन सुखी रह सकता है?

स्वाहा और स्वधा..

सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी ने मनुष्यों के कल्याण के लिए सात पितरों की उत्पत्ति की. उनमें से चार मूर्तिमान हो गए और तीन तेज के रूप में स्थापित हो गए। सातों पितरों के आहार की व्यवस्था की करनी थी। ब्रह्मा ने व्यवस्था दी कि श्राद्ध और तर्पण के माध्यम से मिलने वाली भेंट ही उनका आहार होगी। जब मनुष्यों द्वारा श्राद्ध और तर्पण का अंश पितरों तक नहीं पहुंचा तो उन्हें परेशानी होने लगी। वे अपनी समस्या लेकर ब्रह्मदेव के पास पहुंचे।

पितरों ने कहा- आपने मनुष्यों के कल्याण के लिए हमारी रचना की। उनके द्वारा दिया श्राद्ध और तर्पण का अंश हमारे लिए तय किया लेकिन मनुष्यों द्वारा भेजा हमारा अंश हमें नहीं मिल रहा है। देवों को जब हवन आदि में से उनका अंश नहीं मिल रहा था तो आपने उनके लिए भगवती का अंश ‘स्वाहा’ की उत्पत्ति कर उन पर कृपा की, हमारी भूख शांत करने का उपाय करें। यज्ञ में से देवताओं का भाग उन तक पहुंचाने के लेने के लिए अग्नि की भस्म शक्ति ‘स्वाहा’ की उत्पत्ति भगवती से हुई थी।

इसलिए ब्रह्मा ने देवी का ध्यान कर उनसे पितरों के संकट समाधान की विनती की। भगवती ब्रह्मा के शरीर से उनकी मानसी कन्या के रूप में प्रकट हुई। सैकड़ों चंद्रमा की तरह चमकते उनके अंश रूप में विद्या, गुण और बुद्धि विद्यमान थे। पर तेजस्वी देवी का ‘स्वधा’ नामकरण करके ब्रह्मा ने पितरों को सौंप दिया। ब्रह्मा ने स्वधा को वरदान देते हुए कहा- जो मनुष्य मंत्रों के अंत में स्वधा जोड़कर पितरों के लिए भोजन आदि अर्पण करेगा, वह सहर्ष स्वीकार होगा। पितरों को अर्पण किए बिना कोई भी दान-यज्ञ आदि पूर्ण नहीं होंगे और पितरों को उनका अंश बिना तुम्हारा आह्वान किए पूरा न होगा। तभी से पितरों के लिए किए जाने वाले दान में स्वधा का उच्चारण किया जाता है।

गरुण पुराण में मृत्यु के बाद का वर्णन

मृत्यु के बाद जीव अंगूठे के बराबर लौ की तरह होजाता है। अपने शरीर में आना चाहता है पर आ नहीं पाता। अपने तन को देखता है,रोते परिजनों को देखता है,उनके मन के भाव पढ़ लेता है कि कौन सही दुखी है और कौन दिखावटी आंसू बहा रहा है। यम पाश में बंधा है, शरीर में नहीं जा पाता पर श्मशान घाट तक जाता है। वह जलते शरीर को देख कर दुखी होता है। जब सब जला कर छोड़ जाते हैं तो झटका लगता है। फिर भी मोह वश अपने घर से कुछ दूर पीपल के पेंड़ के आश्रय में ठहरता है ,घंट से टपकने वाले जल से उसकी जलन शांत होती है। १० दिन तक उसकी गणना प्रेत मे होती है।

पिंड पाकर संतुष्ट होता है। उसका स्वरुप एक हाथ का हो जाता है। यम पाशमे बद्ध होकर यम के सामने पहुंचाया जाता है। जहां उसके कर्मों का लेखा जोखा चित्र गुप्त पेश करते हैं ।  १२ वें दिन कर्म के समय वह पितृगणों मे पहुंचाया जाता है। उसके कर्मो के अनुसार स्वर्ग या नर्क मे दंड पाने की अवधि तय होती है। लेकिन जो हमने दान पुण्य किए हैं उससे राहत मिलती है ,जो धन संपदा बटोरी उसका कोई परलोक में लाभ नहीं।

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