यशोदा श्रीवास्तव
मल्लिका अर्जुन खड़गे के रूप में कांग्रेस को एक दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष मिला है। खड़गे के अध्यक्ष निर्वाचित होने पर भी भाजपा को चैन नहीं है। वह अभी भी नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर अनाप शनाप आरोप लगाए जा रही है। इस सबसे बेफिक्र कांग्रेस अपना काम करती जा रही है।माना जा रहा है कि पार्टी शीघ्र ही जातीय अंकगणित के हिसाब से संगठन का तानाबाना मजबूत करेगी। राजनीति की जो वर्तमान धारा है, उसमें जातियता और क्षेत्रियता का बोलबाला है।भाजपा की राजनीति की मुख्य धुरी ही यह दोनों है। कांग्रेस अभी तक इससे बचती रही है क्योंकि सत्ता के लिए वह न तो क्षेत्रीय राजनीति करती थी और न ही जातिय आधारित ही करती थी लेकिन कांग्रेस को लगने लगा है कि यह अब अपरिहार्य है। एक दलित का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने के पहले यूपी में भी दलित प्रदेश अध्यक्ष से लेकर 6 प्रांतीय अध्यक्षों के चयन पर गौर करें तो साफ दिखता है कि कांग्रेस ने किस तरह जातीय और क्षेत्रीयता का संतुलन एक साथ साधने का प्रयास किया है।
बताने की जरूरत नहीं कि देश की राजनीति में ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित कांग्रेस का जनाधार हुआ करते थे। स्थितियां बदलती गई और यूपी की राजनीति में स्व.मुलायम और मायावती का उदय हुआ। मुलायम ने जहां कांग्रेस से अल्पसंख्यक वोटों को उससे दूर किया वहीं मायावती दलितों को कांग्रेस से झपटने में कामयाब हुई। ब्राह्मण धीरे धीरे भाजपा की ओर चला गया। जातीय वोटों के ऐसी ध्रुवीकरण की लहर में कांग्रेस बहुत कमजोर होती चली गई। कांग्रेस ने अब अपनी स्टेटजी को चेंज किया है। उसने यूपी में भी दलित प्रदेश अध्यक्ष तय किया है साथ ही जो 6 प्रांतीय अध्यक्षों का चयन किया गया है, उसमें भी जातीय और क्षेत्रीयता पर फोकस किया गया है। वे चाहे ब्राम्हण चेहरा के रूप में नुकुल दूबे हों, मुस्लिम चेहरा के रूप में नसीमुद्दीन सिद्दीकी हों, योगेश दिक्षित हों,अजय राय,अनिल यादव या वीरेंद्र चौधरी हों इन सबका अपने अपने जोन में अच्छा खासा प्रभाव है। प्रांतीय अध्यक्षों में वीरेंद्र चौधरी महराजगंज जिले से विधायक हैं।
इनके पास 6 बार चुनाव लड़ने का अनुभव है। पूर्वी यूपी के कई जिलों में कुर्मी जातियों की संख्या काफी है। पहले पडरौना के आरपीएन सिंह को पूर्वांचल के कुर्मियों का नेता माना जाता था हालांकि कुर्मियों ने उन्हें कभी अपना नेता नहीं माना। उनसे बड़े कुर्मी नेता बस्ती जिले के राम प्रसाद चौधरी हैं। कांग्रेस ने केवल कुर्मी वोटरों को साधने के लिए ही वीरेंद्र चौधरी को प्रांतीय अध्यक्ष नहीं बनाया है, कांग्रेस की रणनीति उन्हें पूर्वांचल के पिछड़ों का बड़ा चेहरा बनाने की है। विरेन्द्र चौधरी युवा हैं और पूर्वी यूपी के कुर्मी बाहुल्य जिलों में उनकी स्वीकार्यता है। मजे की बात है की कुर्मी बिरादरी के होते हुए भी उन्होंने खुद को सिर्फ अपनी बिरादरी के नेता के रूप में विकसित नहीं किया। खुद उनके जिले में ठाकुर भी उनके साथ हैं तो ब्राह्मण भी साथ हैं।
अल्पसंख्यक समाज का बड़ा झूंड सदैव ही उनके साथ बना रहता है। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत के वे बहुत प्रिय और करीबी हैं। कहने का आशय यह कि कांग्रेस ने जिन 6 प्रांतीय अध्यक्षों का अलग अलग जोन से चयन किया है,उन सबमें यदि वीरेंद्र चौधरी जैसी लोकप्रियता हो तो निश्चय ही कांग्रेस यूपी में अपनी स्थिति बेहतर कर सकती है। 2024 के लोकसभा का चुनाव बहुत दूर नहीं है। एक दो महीने में लोकसभा चुनाव का चुनावी वर्ष प्रारंभ हो जाएगा। यूपी कांग्रेस के नवनियुक्त संगठन के पास समय कम है और काम ज्यादा है। एक कांग्रेस नेता का साफ कहना है कि कांग्रेस का मौजूदा संगठन यदि सक्रीय हो गया तो लोकसभा चुनाव में वह भाजपा से मजबूती से मुकाबला कर पाने लायक तैयार हो पाएगी।