आशा दशमी व्रत आज है जानिए शुभ लाभ व कथा…

जयपुर से राजेंद्र गुप्ता


आशा दशमी व्रत का प्रारंभ महाभारत काल से माना जाता है। यह व्रत किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि से आरंभ किया जा सकता है। यह व्रत करने से मनुष्य के जीवन की सभी आशाएं पूर्ण होती हैं। जीवन की समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाला आशा दशमी व्रत इस वर्ष 28 जून, 2023, बुधवार को है।

कितने समय करें :- यह व्रत 6 माह, 1 वर्ष अथवा 2 वर्षों त‍क करना चाहिए।

व्रत कैसे करें :- दशमी के दिन प्रात: नित्य कर्म, स्नानादि से निवृत्त होकर देवताओं का पूजन करके रात्रि में पुष्प, अलक तथा चंदन आदि से 10 आशा देवियों की पूजा करनी चाहिए। इस दिन माता पार्वती का पूजन किया जाता है।  इस व्रत को करने वाले हर मनुष्‍य को आंगन में दसों दिशाओं के चित्रों की पूजा करनी चाहिए। दसों दिशाओं के अधिपतियों की प्रतिमा, उनके वाहन तथा अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कर दस दिशा देवियों के रूप में मानकर पूजन करना चाहिए।

इसके पश्‍चात निम्न प्रार्थना करती चाहिए।

आशाश्चाशा: सदा सन्तु सिद्ध्यन्तां में मनोरथा:।

भवतीनां प्रसादेन सदा कल्याणमस्त्विति।।’

 

यानी ‘हे आशा देवियों, मेरी सारी आशाएं, सारी उम्मीदें सदा सफल हों। मेरे मनोरथ पूर्ण हों, मेरा सदा कल्याण हो, ऐसा आशीष दें।

तत्पश्चात ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देने के बाद प्रसाद स्वयं ग्रहण करना चहिए।

इसी तरह तब तक हर महीने इस व्रत को करना चाहिए। जब तक आपकी मनोकामना पूर्ण न हो जाए।

आशा दशमी का व्रत के करने से सभी आशाएं पूर्ण हो जाती हैं।

व्रत का लाभ :- इस व्रत के पीछे यह धार्मिक मान्यता है कि कोई भी कन्या इस व्रत को करने से श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है।

अगर किसी स्त्री का पति यात्रा प्रवास के दौरान जल्दी घर लौट कर नहीं आता है तब सुहागन स्त्री इस व्रत को करके अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है।

 

आशा दशमी व्रत की पौराणिक कथा

आशा दशमी की पौराणिक व्रत कथा, जो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पार्थ को सुनाई थी।

इस कथा के अनुसार प्राचीन काल में निषध देश में एक राजा राज्य करते थे। उनका नाम नल था। उनके भाई पुष्कर ने द्यूत में जब उन्हें पराजित कर दिया, तब नल अपनी भार्या दमयंती के साथ राज्य से बाहर चले गए। वे प्रतिदिन एक वन से दूसरे वन भ्रमण करते रहते थे तथा केवल जल ग्रहण करके अपना जीवन-निर्वाह करते थे और जनशून्य भयंकर वनों में घूमते रहते थे।

एक बार राजा ने वन में स्वर्ण-सी कांति वाले कुछ पक्षियों को देखा। उन्हें पकड़ने की इच्छा से राजा ने उनके ऊपर वस्त्र फैलाया, परंतु वे सभी वस्त्र को लेकर आकाश में उड़ गए। इससे राजा बड़े दु:खी हो गए। वे दमयंती को गहरी निद्रा में देखकर उसे उसी स्थिति में छोड़कर वहां से चले गए।

जब दमयंती निद्रा से जागी, तो उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं हैं। राजा को वहां न पाकर वह उस घोर वन में हाहाकार करते हुए रोने लगी। महान दु:ख और शोक से संतप्त होकर वह नल के दर्शन की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगी। इसी प्रकार कई दिन बीत गए और भटकते हुए वह चेदी देश में पहुंची। दमयंती वहां उन्मत्त-सी रहने लगी। वहां के छोटे-छोटे शिशु उसे इस अवस्था में देख कौतुकवश घेरे रहते थे।

एक बार कई लोगों में घिरी हुई दमयंती को चेदि देश की राजमाता ने देखा। उस समय दमयंती चन्द्रमा की रेखा के समान भूमि पर पड़ी हुई थी। उसका मुखमंडल प्रकाशित था। राजमाता ने उसे अपने भवन में बुलाया और पूछा- तुम कौन हो?

इस पर दमयंती ने लज्जित होते हुए कहा- मैं विवाहित स्त्री हूं। मैं न किसी के चरण धोती हूं और न किसी का उच्छिष्ट भोजन करती हूं। यहां रहते हुए कोई मुझे प्राप्त करेगा तो वह आपके द्वारा दंडनीय होगा। देवी, इसी प्रतिज्ञा के साथ मैं यहां रह सकती हूं।

राजमाता ने कहा- ठीक है, ऐसा ही होगा।

तब दमयंती ने वहां रहना स्वीकार किया। इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत हुआ। फिर एक ब्राह्मण दमयंती को उसके माता-पिता के घर ले आया किंतु माता-पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने पर भी पति के बिना वह बहुत दुःखी रहती थी।

एक बार दमयंती ने एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उससे पूछा- ‘हे ब्राह्मण देवता! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बताएं जिससे मेरे पति मुझे प्राप्त हो जाएं।’

इस पर उस ब्राह्मण ने कहा- ‘तुम मनोवांछित सिद्धि प्रदान करने वाले आशा दशमी व्रत को करो, तुम्हारे सारे दु:ख दूर होंगे तथा तुम्हें अपना खोया पति वापस मिल जाएगा।’

तब दमयंती ने ‘आशा दशमी’ व्रत का अनुष्ठान किया और इस व्रत के प्रभाव से दमयंती ने अपने पति को पुन: प्राप्त किया।

 

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