दिन का उजाला तो सपने देखने में बीता,
रात का अँधेरा बेटे को सुलाने में बीता,
मेरा पूरा जीवन उस को सजाने में बीता,
जिस घर में मेरा नाम भी नहीं दिखता।
बचपन जहाँ बीता वह एक घर मेरा था,
छूट गया जब किसी और के घर आना था,
अब न वो रहा मेरा और न ये ही है मेरा,
तो क्यों कहे कोई कि सब कुछ है मेरा।
वैसे तो जीवन में किसी का कुछ भी नहीं है,
पर मिथ्या ही सही, कहने को है सब कुछ,
जीते जी भी कभी छूट जाता है सब कुछ,
यही स्थिति है जिनका कहीं नहीं है कुछ।
समर्पण और केवल समर्पण ही हश्र है,
हर हश्र में ख़ुश रहने का एक मिथक है,
पूरा जीवन हँसना भी और रुदन भी है,
सहजता व सरलता से सब सहन भी है।
गृहिणी भी हैं, तो गृह स्वामिनी भी हैं,
सभी यह कहते हैं घर की मालकिन भी हैं,
घर भले ही किसी और के नाम का हो,
चलाने व संभालने के उत्तरदायित्व जो हैं।
त्याग और कर्मठता की प्रतिमूर्ति,
सीता उर्मिला मांडवी व श्रुतिकीर्ति,
लक्ष्मी हों, सावित्री हों या गायत्री,
सदा परिवार को समर्पित हर स्त्री।
हरियाली तीज या करवा चौथ हो,
निर्जल वृत हों या वटवृक्ष पूजन हो,
पति की दीर्घायु होने की विनती हो,
सदा सुहागन होने की मनोकामना हो।
गृह लक्ष्मी की संज्ञा से विभूषित,
पार्वती जैसी तपस्या को अर्पित,
यह रचना जिनके लिए है सृजित,
आदित्य उन्हीं देवियों को समर्पित।