शान्ति के समान कोई तप नही है,
संतोष से श्रेष्ठ कोई सुख नही है,
तृष्णा से बढकर कोई रोग नही है,
दया से बढकर कोई धर्म नहीं है ।
संस्कारशाला बचपन से शुरू होती है,
बचपन कच्चे घड़े की तरह ही होता है,
जब घड़ा पककर तैयार हो जाता है,
तो फिर कुछ नहीं बदला जा सकता है।
उसी तरह से जो बचपन में मिली सीख,
आगे चलकर कितना भी कुछ किया जाय,
संस्कारी या कुसंस्कारी में बदलाव
किया जाना बहुत ही कठिन होता है।
समझदार बदला लेने का नहीं बदलाव
लाने का विचार ही उचित मानता है,
वो ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देकर
फेंकी हुई ईट से इमारत बना लेता है।
आदित्य रिश्ता व भरोसा दोस्त होते हैं,
रिश्ता रखें या ना रखें किंतु भरोसा रखें,
क्योंकि जहाँ कहीं भी भरोसा होता है,
वहाँ रिश्ते तो अपने आप बन जाता है।