रंजन कुमार सिंह
कांग्रेस पार्टी में सालों से बने हुए नेतृत्व के असमंजस का अंत हो गया है, लेकिन नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को एक तरफ सत्तारूढ़ बीजेपी से लड़ना है और दूसरी तरफ गांधी परिवार के प्रतिनिधि होने की छवि से। मल्लिकार्जुन खड़गे के रूप में 24 सालों में पहली बार गांधी परिवार के बाहर से कोई कांग्रेस का सदस्य पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना है। 1978 से पार्टी की अध्यक्षता नेहरू-गांधी परिवार के पास ही रही है। सिर्फ 1992 से 1996 तक पी वी नरसिम्हा राव और फिर 1996 से 1998 तक सीताराम केसरी अध्यक्ष रहे। 1998 से लेकर 2017 तक सोनिया गांधी का बतौर अध्यक्ष एक मजबूत कार्यकाल रहा, जिस दौरान शुरुआती झटकों के बाद पार्टी ने लगातार दो बार केंद्र में सरकार बनाई। लेकिन 2014 में सत्ता से बाहर होते ही पार्टी के लिए संकट के एक लंबे दौर की शुरुआत हो गई, जिसका अंत अभी भी नहीं हुआ है।
मल्लिकार्जुन खड़गे को एक साथ कई मोर्चों पर काम करना पड़ेगा
2017 में राहुल गांधी ने अध्यक्षता संभाली लेकिन 2019 में लगातार दूसरी बार लोक सभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और अध्यक्ष पद बिगड़ते हुए स्वास्थ्य से जूझती उनकी मां के पास वापस चला गया।
चुनौतियों की लंबी सूची
लेकिन पार्टी के संकटों का अंत नहीं हुआ। कर्नाटक में चुनाव जीतने के बावजूद सत्ता हाथ से निकल गई। पंजाब में पार्टी चुनाव हार गई और सत्ता से बाहर हो गई। महाराष्ट्र में पुराने प्रतिद्वंदी शिव सैनिकों के साथ बनाया गया गठबंधन भी धराशायी हो गया और वहां भी पार्टी सत्ता से बेदखल हो गई।
राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में अंतरकलह बढ़ गया। राजस्थान में तो दो बार पार्टी टूटने के कगार पर पहुंच गई। कार्यकर्ताओं और पुराने नेताओं का पार्टी छोड़ कर जाना जारी रहा। अमरिंदर सिंह, कपिल सिबल, गुलाम नबी आजाद आदि जैसे बड़े नेता पार्टी छोड़ कर चले गए।
चुनावों से ठीक पहले अशोक गहलोत को लेकर जो हुआ उससे तो केंद्रीय नेतृत्व की साख पर बट्टा भी लगा और केंद्रीय नेतृत्व का राज्यों में पार्टी की इकाइयों से विसंबंधन भी उजागर हो गया। सालों से यह सब चुपचाप देख रहे पार्टी के कई सदस्यों की तरह खड़गे को भी इन हालात से जन्मी चुनौतियों का एहसास होगा।
करीब हैं 2024 के चुनाव
अब देखना यह है कि वो इन चुनौतियों से कैसे जूझते हैं। उनके साथ अतिरिक्त बोझ गांधी परिवार के प्रतिनिधि होने की उनकी छवि का भी है। ऐसे में क्या वो स्वतंत्र रूप से अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियां निभा पाएंगे या गांधी परिवार के ही इशारों पर निर्भर रहेंगे, इस तरह के सवालों का उन्हें जवाब देना होगा। उनके पास ज्यादा समय भी नहीं है। अगले लोक सभा चुनावों में अब दो साल से भी कम का समय बचा है। विपक्ष का नेतृत्व करने की दावेदारी में भी कांग्रेस पीछे है। तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, आम आदमी पार्टी, टीआरएस आदि जैसी पार्टियां भी लगातार अपनी दावेदारी पेश कर रही हैं। खड़गे को एक साथ कई मोर्चों पर काम करना पड़ेगा – अपनी पार्टी की कमर कसना, विपक्ष की दूसरी पार्टियों के साथ तालमेल बनाना और बीजेपी को चुनौती देना। देखना होगा कि वो इन लक्ष्यों में कितने सफल हो पाते हैं।