पितरों के पावन दिन ,श्राद्ध का विज्ञान और अर्यमा

संजय तिवारी
संजय तिवारी

सनातन संस्कृति केवल विश्वास यानी अंग्रेजी के शब्द बिलीफ पर आधारित नही है। यह विशुद्ध विज्ञान है। इसमे समाहित प्रत्येक सोपान का विशुद्ध विज्ञान है। इसके सभी दिन विज्ञान से संचालित और निर्धारित होते है। यह किसी मजहबी या पांथिक आख्यान से संचालित नही होते। यह विज्ञान आधुनिक विज्ञान की तरह दो चार सौ वर्षों का नही है। सृष्टि के साथ संचालित है। इसीलिए आधुनिक विज्ञान अभी इसके एक एक अंग को देख ,समझ और स्वीकार कर रहा है। वर्ष के 365 दिनों में से 15 दिन उन ऊर्जाओं के लिए क्यो दिए गए, इस विज्ञान को समझना आवश्यक है। इस आलेख का उद्देश्य भी यही है। ये 15 दिन अत्यंत पवित्र दिन होते हैं लेकिन लोक में इन्हें एक अजीब भाव मे देखने की प्रवृत्ति आ गयी है। ऐसा पूर्व में नही था, क्योकि अपने पूर्वजों के लिए निर्धारित इन दिनों में पहले लोक इसे उसी भाव मे देखता था। बीच की पराधीन जीवन शैली और अवैज्ञानिक शिक्षा ने इसको समझे बिना ढकोसला या कर्मकांड बताना शुरू कर दिया । अब आप समझिए कि जो हमारा शरीर है वह हमारी मृत्यु के बाद भी बचा रह जाता है। इस शरीर का निर्माण जिन पांच तत्वों से हुआ है, जिनके बारे में आधुनिक विज्ञान भी अब मान चुका है, वे पांच तत्व कैसे अपने मूल तत्वों में मिलें, इसके लिए हमारी संस्कृति में दहन की व्यवस्था की गई है।

जब प्राणहीन शरीर को दाह किया जाता है तो पृथ्वी तत्व पृथ्वी में, अग्नि तत्व अग्नि में, वायु तत्व वायु में मिल जाता है। जब पुष्प यानी अस्थि विसर्जन करते हैं तो जल तत्व जल में मिल जाता है । आकाश तत्व पहले ही निकल चुका होता है। लेकिन यह आकाश तत्व 13 दिंनो तक अपने अन्य अवयवों के समीप ही रहता है। एक एक अवयव को अपनी प्रकृति में मिलने में कुल 13 दिन लग जाते है। प्राणतत्व के 13 दिनों के स्वरूप को प्रेत कहा जाता है । यहां यह भी समझने की अवाश्यकता है कि प्रेत कोई नकारात्मक शब्द नही है बल्कि यह आत्मतत्व की यात्रा का एक सूक्ष्म प्रकार है जो मृत्यु को प्राप्त शरीर के श्राद्ध तक रहता है। विधिपूर्वक श्राद्ध के बाद ही वह पितर बनता है।

श्राद्ध के अंतिम दिन जब उसे पिंड के साथ गति दी जाती है और अपने पूर्व की तीन पीढ़ियों के पिंड में मिश्रित किया जाता है तब उस परम प्राण तत्व की यात्रा शुरू होती है जो उसके अपने निजी अर्जित पुण्य, पाप के अधार पर योनिगत करती है। पुत्र द्वारा समुचित श्रद्धा अर्पण यानी श्राद्ध के बाद ही यह यात्रा आगे बढ़ती है।

यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पुत्र का अर्थ केवल संतति नही है। शास्त्रों में पुत्र को बहुत स्पष्ट परिभाषित किया गया है-

पुन्नर कात्रायते हि पुत्रः।।

पुत्र वही है जो अपने पितर के लिए समुचित श्रद्धा का निर्वहन करता है, यह उस शरीर की निजी संतति भी हो सकती है या की पुत्रवत कोई अन्य भी। पुत्र शब्द को हमने रूढ़ि में संतान के जोड़ कर ही देखा है जबकि इस शब्द का केवल संतान से कोई संबंध नही है। पुत्र सिर्फ वह है जो पूर्वज की श्रद्धा विधि करे। उदाहरण के लिए भगवान श्रीराम को दशरथ जी का पुत्र इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने पुत्रधर्म का निर्वाह किया। जो संतति पुत्र धर्म का निर्वाह नही करती वह संतान होती है लेकिन पुत्र नही। पुत्र की शास्त्रीय परिभाषा बहुत स्पष्ट है।

शाब्दिक अर्थों में ‘पितृ’ से अर्थ ‘ पिता, पितर या पूर्वज’ आदि होता है, किंतु धार्मिक मान्यताओं में जब पितृपक्ष या पितरों की बात आती है तो इससे अर्थ उन मृत परिजनों से लगाया जाता है जिन्हें मृत्यु के पश्चात किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति न होने के कारण मोक्ष नहीं मिला और प्रेत योनि में जाकर निवास करना पड़ रहा है। पितर या पूर्वजों समेत आपके वर्तमान जीवन से जुड़े सभी बड़े और गुरु, सूर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य सीधे आपकी प्रसिद्धि, सामाजिक सम्मान और सफलता से जुड़ा होता है। इसलिए इनकी प्रसन्नता या अप्रसन्नता से आपके जीवन की खुशियां और सफलता भी बहुत हद तक प्रभावित होती हैं। पितर अर्थात मृत परिजन आपसे सीधे संवाद नहीं कर सकते, इसलिए आपके जीवन में असामान्य रूप से होने वाली अच्छी या बुरी घटनाओं के द्वारा अपने भाव प्रकट करते हैं।

पितरों की प्रसन्नता जहां हर प्रकार से सम्मान और सफलता दिलाता है, वहीं इनकी अप्रसन्नता जीवन में अनावश्यक ही विवाद पैदा करते हुए खुशी की हर संभावना छिनने के समान स्थितियां पैदा करती हैं। भाद्रपद पूर्णिमा से अमावस्या के दौरान 15 दिनों तक पितृपक्ष मनाया जाता है और उनकी प्रसन्नता, मुक्ति के लिए दान, श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान किए ये काम पितरों को मुक्ति दिलाते हैं जिससे प्रसन्न होकर वे आपको आशीर्वाद देते हैं। इसलिए पितरों को प्रसन्न करने के लिए श्राद्ध पक्ष के दौरान कई तरह के उपाय किए जाते हैं।

।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः। ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। ऋषि कश्यप की पत्नीं अदिति के 12 पुत्रों में से एक अर्यमन थे। ये बारह हैं:- अंशुमान, इंद्र, अर्यमन, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और त्रिविक्रम (वामन)।

“पितृपक्ष” पर विशेष : जीवात्मा क चंद्रलोक से ऊपर पितृलोक में प्रतिष्ठित करे खातिर श्रद्धा से श्राद्ध करल बा जरूरी,

अदिति के तीसरे पुत्र हैं अर्यमा

अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है। चंद्रमंडल में स्थित पितृलोक में अर्यमा सभी पितरों के अधिपति नियुक्त हैं। वे जानते हैं कि कौन सा पितृत किस कुल और परिवार से है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है। इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का ‘हव्य’ और श्राद्ध में स्वधा का ‘कव्य’ दोनों स्वीकार करते हैं।

पितृलोक

धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। यह आत्माएं मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहते हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।

शास्त्रों के  अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।

पितरों की मुक्ति हेतु गया श्राद्ध

चार व्यवस्थापक

यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश। इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।

दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण

अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।

 

सूर्य किरण का नाम अर्यमा

देसी महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैं- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।

श्राद्ध या तर्पण

पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात ही स्वयं पितृ तर्पण किया जाता है। पितर चाहे किसी भी योनि में हों वे अपने पुत्र, पु‍त्रियों एवं पौत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश स्वीकार करते हैं। इससे पितृगण पुष्ट होते हैं और उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है। यह कर्म कुल के लिए कल्याणकारी है। जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं। पूरे वर्ष वे लोग उनके श्राप से दुखी रहते हैं। पितरों को दुखी करके कौन सुखी रह सकता है? श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है।

 सर्व पितृ अमावस्या का महत्व

सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम ‘अमा’ है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चंद्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांति काल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है। अब एक जिज्ञासा होती है कि पितर कैसे प्रसन्न या अप्रसन्न हो सकते हैं। आखिर यह हम सामान्य लोगों को कैसे पता चलेगा। यह कैसे पता चले कि हमारे द्वारा किए ये कार्य आपके पितरों को प्रसन्न कर रहे हैं? इसके लिए आपको इन 15 दिनों में मिलने वाले कुछ संकेतों पर ध्यान देना होगा।

पितृ पक्ष यानी श्राद्ध आज से होंगे शुरू

पितरों की अप्रसन्नता

शास्त्रों के अनुसार पितरों की अप्रसन्नता उनसे जुड़े पूरे परिवार के लिए कई प्रकार की मुश्किलें लाता है। घर में अकारण कलह और तनाव का माहौल बनता है, भाइयों या परिवारजनों में मनमुटाव होते हैं, परिवार के सभी सदस्यों की सफलता बाधित होती है और ऐसा परिवार अक्सर रोग और शोक से ही जूझता रहता है।

पितरों की प्रसन्नता

इसके ठीक उलट अगर पितर प्रसन्न हों तो परिवार में खुशहाली आती है। ऐसा परिवार किसी भी आक्समिक मुसीबत से बचा रहता है, अनावश्यक परेशानियां-तनाव उनके जीवन में नहीं होतीं और उनके द्वारा किए ईमानदार प्रयास हमेशा सफल होते हैं। पितृपक्ष के दौरान आपके साथ अचानक घटने वाली कुछ घटनाएं ही बताती हैं कि आपके पितर आपसे प्रसन्न हैं या अप्रसन्न। इसके लिए आपको डेली लाइफ में मिलने वाले इन संकेतों पर ध्यान देना होगा।

पितरों की अप्रसन्नता

अधिकांश मामलों में यह साल का एक ऐसा पखवारा होता है जिसमें लोगों को या तो सफलता मिलती है या आवश्यकता से अधिक मुसीबतों का सामाना करना पड़ता है। कई लोग इस दौरान ऐसा कहते हुए सुने जाते हैं। कि अचानक जैसे मुसीबतों ने उन्हें घेर लिया है। पारिवारिक समस्याओं से लेकर आर्थिक नुकसान, कॅरियर में परेशानियां आदि आने लगती हैं। अगर आपके साथ ही ऐसा है, इसका साफ अर्थ यही निकलता है कि आपके पितर आपसे नाखुश हैं। इसलिए उनकी नाराजगी आपको असफलताओं के रूप में झेलनी पड़ती हैं। ऐसे में आपको उनका विशेष श्राद्ध-कर्म और दान करना चाहिए।

पितरों की संतुष्टि

ऐसा भी होता है कि इसी दौरान लोगों को बड़ी सफलता मिलती है, लंबे समय से चली आ रही समस्याओं या विवादों का अचानक हल निकल आता है, तो यह संकेत है आपके पितर आपसे बेहद प्रसन्न हैं। पितरों की प्रसन्नता आपको उनका आशीर्वाद दिलाता है जिससे आपको हर प्रकार से खुशहाली देता है।

 

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