सनातन के संरक्षण में दक्षिण की कला को प्रणाम

गोस्वामी जी की विनय पत्रिका में उद्धृत है कांतार


संजय तिवारी


कांतारा आजकल चर्चा में है। द कश्मीर फाइल्स के बाद सर्वाधिक चर्चित फिल्म। दक्षिण भारत के फिल्मकारों ने फिर से यह स्पष्ट संदेश दिया है कि सनातन की जड़ों की तलाश और मूल्यों के संरक्षण में वे बहुत आगे हैं। इस फ़िल्म का विषय और इसकी प्रस्तुति को देखने के बाद इस पर लिखे बिना नहीं रहा जा सकता। भगवान परशुराम ऐसे चरित्र को लेकर आधुनिक परिवेश में रचे गए इस कथानक को सभी को जानना ही चाहिए। विनयपत्रिका में गोस्वामी जी लिखते हैं-

संसार-कांतार अतिघोर,

गंभीर, धन गहन

तरुकर्म-संकुल, मुरारी।

वासना-बल्लि खर-कंटकाकुल

विपुल, निबिड़, विटपाटवी

कठिन भारी।।

(विनयपत्रिका, पद-59)

यह कांतार घोर है, घनघोर है। यह अद्भुत भी है।भय-दर्शन – अपने मन को पापों एवं दुष्कर्मों के भयंकर कुपरिणाम दिखला कर उसे प्रभुपाद में लगाने का नाम है भय-दर्शन। मानव का मन कामना, वासना, क्रोध, मद, मत्सर आदि में ही लिपटा रहता है। जब मन समझाने-बुझाने से नहीं मानता है तो उसे भय दिखाकर भगवदोन्मुख करना पड़ता है। गोस्वामी जी संसार की भयंकरता का वर्णन कर मन को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। यहीं से शुरू होती है फ़िल्म कांतारा की कथा की भावभूमि।

दक्षिण कन्नड़, परशुराम और कांतारा

‘कांतारा’ के मूल में शब्द है कांतार। इस शब्द का अर्थ हुआ घना, रहस्यमयी जंगल। पूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी ने विनयपत्रिका में इस संसार को कांतार लिखा है। ‘कांतारा’ एक जंगल और वहां रहने वालों की कहानी है। कर्नाटक के जिस दक्षिण कन्नड़ जिले से रिषभ आते हैं और जो उनकी कहानियों में एक किरदार की तरह मौजूद रहता है, वो तुलू नाडु क्षेत्र में आता है। यहां के लोग तुलू भाषा बोलते हैं और यहां की अपनी एक बहुत समृद्ध संस्कृति और इतिहास रहा है। तुलू नाडु को एक अलग राज्य बनाने की मांग भी उठती रही है। इस इलाके का एक बड़ा संबंध उस धार्मिक मान्यता से रहा है जो उत्तर भारत में भी बहुत प्रचलित है। भगवान विष्णु के छठे अवतार कहे जाने वाले परशुराम की कथा ।

भगवान परशुराम से सभी परिचित हैं। उन्हें स्वयं श्रीहरि का अवतार माना जाता है। उन्होंने कई बार इस पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था , कथा भी आपने सुनी होगी। भारत की अधिकतर गाथाएँ पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ती है। कर्नाटक और केरल के लोगों को भूमि प्रदान करने वाले परशुराम के नाम पर यूपी-बिहार में भी वोटों की राजनीति होती है। कन्नड़ फिल्म ‘कांतारा (Kantara)’ का सीधा संबंध उसी भगवान परशुराम से है। ‘कांतारा’, जो एक कन्नड़ फिल्म है। दक्षिण कन्नड़ जिले के ऋषभ शेट्टी इसके निर्देशक हैं और साथ ही मुख्य अभिनेता भी, जिन्होंने कर्नाटक के गाँवों की संस्कृति को करीब से देखा है और इसी बीच पले-बढ़े भी हैं। ‘कांतारा’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, वनवासी समाज की संस्कृति, इतिहास, मिथक और संघर्षों की एक ऐसी कथा है जो वास्तविकता से मेल खाती है। अध्यात्म को जंगल से जोड़ने वाली कहानी।

यह कथा वनवासियों की भूमि को सरकार और जमींदारों द्वारा कब्जाने के इर्दगिर्द घूमती है। क्या किसी जंगल क्षेत्र को रिजर्व घोषित करने से पहले सरकारें वहाँ के वनवासी समाज की संस्कृति और परंपराओं को ठेस पहुँचाए बिना उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्थाएँ करती हैं? क्या दंबंगों के अत्याचार से वनवासी समाज आज भी मुक्त है? ये  सवाल हैं, जो इस फिल्म को देखने के बाद उठेंगे। इसमे यह भी दिखाया गया है कि कैसे आस्था के मामले में वनवासी समाज से पूरे समाज को सीखना चाहिए। जो लोग दलितों और वनवासियों को हिन्दुओं से अलग देखते हैं या फिर जानबूझ कर अलग करने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह  फिल्म एक तमाचा है। इसे देखने के बाद उन्हें पता चलेगा कि कैसे वो वास्तविकता से कोसों दूर हैं। वनवासियों को भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करते हुए दिखाया गया है। प्रोपेगंडा चलाने वालों को ये भी समझना चाहिए कि शिव को ‘पशुपति’ कहा गया है। वनवासी समाज की उनमें आस्था के बिना ये शब्द आ ही नहीं सकता है।

बात शुरू हुई थी भगवान परशुराम से। अत्याचारी राजाओं को हराने के लिए एक ब्राह्मण ने न सिर्फ शस्त्र उठाया, बल्कि उन्हें परास्त कर उनकी जमीनें गरीबों को दे दी। यही गरीब ब्राह्मण कालांतर में याचक से जजमान बन गए और कई जमींदार भी हो गए। दक्षिण कन्नड़ जिले में कन्नड़ नहीं, बल्कि तुलू भाषा बोली जाती है। इसीलिए, कई बार तुलू नाडु नाम से अलग राज्य बनाने की माँग भी होती रही है। यह एक अलग विषय है। परशुराम ने वहां जा कर देखा कि धरती तो समुद्र में समा चुकी है। उन्होंने समुद्र के देवता से कहा कि जमीन वापिस करें, उन्हें ध्यान करना है। समुद्र ने जमीन देने से इनकार कर दिया, तो अपने क्रोध के लिए ही पहचाने जाने वाले परशुराम कहां शांत रहने वाले थे।

उन्होंने अपना फरसा पूरे बल के साथ हवा में फेंककर चला दिया। कथाओं में कहा जाता है कि जहां-जहां तक परशुराम का फरसा गया, समुद्र ने वो जमीन छोड़ दी और इस तरह उस जगह पर अस्तित्व में आई ‘परशुराम सृष्टि’ जिसे तुलू नाडु भी कहा जाता है। ‘कांतारा’ की कहानी इसी तुलू नाडु इलाके के जंगल और वहां रहने वाले लोगों की है। तुलू नाडु के जो तटीय इलाके हैं वहां ‘भूत कोला’ नाम का एक धार्मिक अनुष्ठान प्रचलित है, जिसमें आत्माओं की पूजा की जाती है और उन्हें खुश रखा जाता है ताकि वो सम्पन्नता लाने में सहयोग करें, विनाश न करें। यहां आत्मा और भूत का अर्थ अंग्रेजी के स्पिरिट वाले सेन्स में है, किसी प्रेत-पिशाच वाले नेगेटिव सेन्स में नहीं। ‘भूत कोला’ में इन आत्माओं को पशु रूप में पूजा जाता है। तो ‘कांतारा’ की कहानी में ऐसा ही एक देवता है, जिसका नाम है पंजुरली। जंगली सूअर के रूप वाले इस देवता को भारतीय संस्कृति पर पकड़ रखने वाले कुछ स्कॉलर, भगवान विष्णु के वराह अवतार से भी जोड़ते हैं।

महाभारत के महाखलनायक पर फिल्म!!

‘भूत कोला’ को एक लोक नाटक भी कहा जा सकता है। लोक संस्कृति में इसे परफॉर्म करने वाले अधिकतर एक ही परिवार से जुड़े लोग होते हैं जो एक दूसरे से सीख के इस कला में पारंगत होते हैं। ‘कांतारा’ के मुख्य पात्र शिवा (रिषभ शेट्टी) का परिवार ‘भूत कोला’ परफॉर्म करने वाला है। शिवा खुद तो भूत कोला नहीं करता और न धर्म-अनुष्ठान वगैरह को बहुत मानता ही है, लेकिन वो अपने लोगों और संस्कृति से बहुत प्यार करता है। तुलू संस्कृति में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले एक खेल ‘कंबाला’ (बैलों की दौड़) में शिवा चैम्पियन है। जंगल में बसे शिवा के गांव को ये जमीन, कई सौ साल पहले इलाके के राजा ने दी थी। राजा अपने महल में देवता को स्थापित करना चाहता था और जब एक बड़े से पत्थर के रूप में देवता उसे मिले तो उन्हें महल तक ले जाने के लिए उसे और लोग चाहिए थे। गांव के देवता ने शर्त रखी कि राजा गांव वालों को जमीन दे दे तो वो पत्थर को महल तक पहुंचाने में मदद करेंगे।  इस शर्त को कभी तोड़ा नहीं जाएगा, यानी जमीन वापिस नहीं ली जाएगी। राजा ने शर्त मानी और गांववालों को जमीन मिली। कई पीढ़ी बाद अब राजा के वंशज जमीन वापिस लेना चाहते हैं और इस लिए देवता उनसे खफा है। कहानी में एक फ़ॉरेस्ट ऑफिसर भी है जो बस किसी भी तरह जंगल का संरक्षण करना चाहता है और उसे लगता है कि गांववाले और उनके रहने के तौर तरीके से जंगल को नुक्सान पहुंच रहा है। उधर जंगल और गांव की रक्षा करने वाला देवता राजा के वंशजों से नाराज है, उधर फ़ॉरेस्ट ऑफिसर गांवालों से नाराज है। इधर गांव वाले आशंका में हैं कि देवता नाराज है तो कुछ बड़ी विपत्ति आने वाली है। इस पूरी पिक्चर में सबकुछ शांति से वापिस नॉर्मल कैसे होगा, यही ‘कांतारा’ की कहानी का मुद्दा है।

यह कथा है कि भगवान परशुराम सह्याद्रि पर्वत (गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और गोवा में फैली पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ) पर भगवान शिव की तपस्या के लिए चले गए। भगवान शिव ने प्रकार होकर उन्हें कदली वन जाने को कहा और बताया कि वे वहीं अवतार लेने वाले हैं। वहाँ पहुँच कर परशुराम ने समुद्र में समाए इलाकों को पानी से बाहर निकाला और वहाँ लोगों को बसाया। इन्हीं इलाकों को ‘परशुराम सृष्टि’ भी कहा गया। कर्नाटक में आज भी भगवान परशुराम द्वारा स्थापित 7 मंदिर अति पवित्र माने जाते हैं – कुक्के सुब्रह्मण्य (नाग मंदिर), उडुपी स्थित श्रीकृष्ण मंदिर, कुंभाषी स्थित विनायक मंदिर, कोटेश्वर स्थित शिव मंदिर, शंकरनारायण मंदिर, मूकाम्बिका मंदिर और गोकर्ण शिव मंदिर। कर्नाटक, केरल और गोवा के तटवर्ती इलाकों को ‘परशुराम क्षेत्र’ भी कहा जाता है। इसी में स्थित तुलू नाडु के जंगलों की कहानी है ‘कांतारा’, जिसमें ‘भूत कोला’ पर्व के इर्दगिर्द कहानी बुनी गई है। इसे ‘दैव कोला’ या फिर ‘नेमा’ भी कहते हैं।

इसमें जो मुख्य नर्तक होता है, उसे वराह का चेहरा धारण करना होता है। इसके लिए एक खास मास्क तैयार किया जाता है। वराह के चेहरे वाले इस देवता का नाम ‘पंजूरी’ है। वराह अवतार भगवान विष्णु का तीसरा अवतार था, जब उन्होंने पृथ्वी को प्रलय से बचाया था। जगंली सूअर का वेश धारण कर उन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था। वेदों और पुराणों में भी वराह का जिक्र मिलता है। कर्नाटक का ‘यक्षगण’ थिएटर भी ‘भूत कोला’ से ही प्रेरित है। इसी से मिलता-जुलता नृत्य मलयालम भाषियों के बीच भी लोकप्रिय है, जिसे ‘थेय्यम’ कहते हैं। अब इसमें भी कई तरह के देवता हैं, जिनकी अलग-अलग वनवासी समाज पूजा करते हैं। इनमें से एक तो ऐसे हैं जिनका चेहरा मर्दों वाला और गर्दन के नीचे का शरीर स्त्री का है। उनके चेहरे पर घनी मूँछ होती है, लेकिन उनके स्तन भी होते हैं। उन्हें ‘जुमड़ी’ कहा जाता है।

ऐसे अनेक देवता हैं, जिनका अध्ययन करने पर हमें उस खास समाज के इतिहास और संस्कृति के बारे में पता चलता है। हर गाँव में आपको वहाँ अलग-अलग देवता मिल जाएँगे। नर्तकों का मेकअप भी अलग-अलग रीति-रिवाजों की प्रक्रिया के लिए अलग-अलग ही होता है। स्थानीय जमींदार, प्रधान या फिर जन-प्रतिनिधि को ‘भूत कोला’ के दौरान ‘दैव’ के सामने पेश होना पड़ता है, क्योंकि वो उनके प्रति उत्तरदायी होते हैं। ‘कांतारा’ फिल्म देखने के बाद आपको इस संस्कृति के बारे में और जानने-पढ़ने का मन करेगा और अनुभव करने का भी। लेकिन, अब डर ये है कि बॉलीवुड इस फिल्म का रीमेक बना सकता है। दक्षिण भारत की अधिकतर फिल्मों का रीमेक बना कर उसे बर्बाद किया जा चुका है। ‘कंचना’ का ‘राघव’ उसके रीमेक ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ में ‘आसिफ’ बन जाता है। ‘कांतारा’ को लेकर बॉलीवुड को पहले से ही सख्त हिदायत दे दी जाय कि इस फिल्म को छूना भी मत।

ऋषभ शेट्टी ने इसमें जो परफॉर्मेंस दिया है, वो फ़िलहाल बॉलीवुड के किसी भी कलाकार के बूते की नहीं लगती। खासकर क्लाइमैक्स के दृश्यों में उन्होंने जो ‘दैव’ के अवतार में प्रदर्शन किया है, उसे शायद ही कोई मैच कर पाए। बॉलीवुड अगर इसका रीमेक बनाएगा तो इसमें एक ‘अच्छा मुसलमान’ घुसा देगा। भगवान विष्णु के अवतार की स्तुति ‘वराह रूपम दैव वरिष्ठम’ की जगह अजान घुसा दिया जाएगा। ये भी हो सकता है कि क्रूर जमींदार को हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाला और वनवासियों को जबरदस्ती गैर-हिन्दू दिखा कर मुस्लिमों के साथ उनका गठबंधन दिखाया जाए। इसी तरह इस फिल्म में ‘कंबाला’ खेल के बारे में भी दिखाया गया है। इसे भैंसों का एक रेस कह लीजिए। तुलुवा जमींदार इसका आयोजन कराते रहे हैं और जीतने वालों को इनाम मिलता रहा है। इसमें व्यक्ति को भैंसों के साथ एक कींचड़ वाले खेत में रेस लगानी होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी भैंसे लेकर आता है। इसके भी कई प्रकार हैं। भैंसों को सजाया जाता है। बॉलीवुड संस्कृति और परंपराओं का अपमान करता है, ये सब दिखाना उसके बस की बात नहीं।

रमली-उपन्यास कार-सूर्य नारायण शुक्ल

एक देवता की कहानी और ऋषभ शेट्टी की अद्भुत परफॉरमेंस पर्दे पर देखकर आप सन्न रह जाएंगे। कन्नड़ में बनी KGF मेकर्स की यह फिल्म ‘कांतारा’ 30 सितंबर को साउथ में रिलीज हुई थी। उत्तर भारत में भी लोगों ने जबसे ‘कांतारा’ का ट्रेलर देखा था,  इसे बड़ी स्क्रीन पर देखना चाहते थे। फैन्स की डिमांड स्वीकार करते हुए मेकर्स ने 14 अक्टूबर, शुक्रवार को ‘कांतारा’ को हिंदी डबिंग के साथ भी रिलीज कर दिया है। ओटीटी की पहुंच बढ़ने के बाद साउथ में बनी बहुत सारी फिल्मों को उत्तर भारत के सिनेमा फैन्स ने भी देखा है और हमेशा के लिए इन फिल्मों के फैन हो गए हैं। ‘कांतारा’ उन फिल्मों में से है जो अगर आपने अभी थिएटर्स में नहीं देखी और बाद में ओटीटी पर देखी, तो ये अफसोस रहेगा कि थिएटर्स में इसे देखने का अनुभव क्यों मिस कर गए। ‘कांतारा’ की कहानी की जड़ में एक लोककथा है और पूरी फिल्म के नैरेटिव में एक वैसा ही सम्मोहन है जैसा लोककथाओं को सुनने में महसूस होता है। ऋषभ शेट्टी बतौर डायरेक्टर एक ऐसा संसार रचते हैं जिसे आप बहुत उत्सुकता के साथ देखते रहते हैं और वे इस फ्लो के साथ कहानी कहते हैं कि कोई भी मोमेंट खाली नहीं लगता और ‘कांतारा’ के संसार को देखते रहने की इच्छा बनी रहती है। बतौर एक्टर ऋषभ के कम के लिए सबसे सटीक एक ही शब्द लगता है- अद्भुत।

 

कांताराका मिथक

फिल्म में जंगल के बीच बस एक छोटे से गांव की कहानी है। ‘कांतारा’ का अर्थ होता है बीहड़ जंगल, और इस जंगल के निवासियों में सम्पन्नता लाने वाले एक देवता के मिथक की मान्यता है। इस देवता का सालाना अनुष्ठान ‘भूत कोला’ कहानी का एक कोर एलिमेंट है। कहा जाता है कि शांति की तलाश में भटकते एक राजा को, जंगल में पत्थर के रूप में ये देवता मिला और उसने एक शर्त रखी। शर्त ये कि जमीन का ये हिस्सा गांव वालों का रहेगा और राजा को शांति मिलेगी। इस शर्त के नियम को तोड़ने पर भारी विनाश होगा। फिल्म का मुख्य किरदार है शिवा, जिसका परिवार पीढ़ियों से जंगल के देवता की पूजा-अनुष्ठान करता आया है लेकिन शिवा एक पूरी तरह मनमौजी और पैशनेट लड़का है जो अपनी मौज मस्ती में रहता है। ‘कांतारा’ के पहले 30 मिनट में ही ‘कंबाला’ (भैंसे की दौड़) का एक सीक्वेंस है, जिससे आपको बता दिया जाता है कि शिवा जितना मौजी और बहादुर है, उतना ही रिएक्टिव भी यानी बहुत जल्दी भड़कता है। ‘कांतारा’ के फर्स्ट हाफ में शिवा, उसके साथी, जंगल से गांववालों का रिश्ता ये सबकुछ आप समझ जाएंगे।

कहानी में एक फॉरेस्ट ऑफिसर है मुरली (किशोर), जो सरकार की तरफ से जंगल का रखवाला है और उसके हिसाब से जंगल में गांववालों का दखल प्रकृति को नुक्सान पहुंचाने वाला है। ऐसे में जंगल को अपना प्लेग्राउंड मानने वाले शिवा से भी उसकी ठन जाती है। जंगल का जो मिथक कहानी की जड़ में है, उस कहानी के राजा का मौजूद वंशज देवेन्द्र सुत्तर (अच्युत कुमार) भी पूरे खेल में एक महत्वपूर्ण किरदार है। सवाल ये है कि गांववालों का आगे क्या होगा? क्या उनकी जमीनें सरकार के हाथ में जाएंगी? इस दौर में जब जमीनों के चक्कर में लोग गला काटने को तैयार हैं, तब क्या राजा का वंशज अपने पूर्वजों की मानी हुई देवता की शर्त निभाएगा? और इस पूरे खेल में शिवा और उसके पूर्वजों का जंगल के देवता से कनेक्शन किस तरह असर रखता है? इन सवालों का जवाब ‘कांतारा’ जिस तरह स्क्रीन पर देती है, उसे पूरा देखने के बाद आपको थिएटर की सीट से उठने में कुछ मिनट का समय लगेगा।

‘कांतारा’ की कहानी हमारे देश में बहुत सारे ऐसे समुदायों और समाजों की तरह है जो जंगल से सीधे जुड़े हैं। शिव और उसके गांव वालों की तरह देश के बहुत सारे इलाकों के लोग इस तरह के संघर्ष के बीच फंसे रहते हैं। जंगल और इन्सान के रिश्ते पर वैसे भी सिनेमा में बहुत कम फिल्में हैं और ‘कांतारा’ इस लिस्ट में बहुत ऊपर रखी जा सकती है। टेक्निकली, ‘कांतारा’ एक बहुत दमदार फिल्म है। अरविन्द शेट्टी की सिनेमेटोग्राफी बहुत दमदार है। फिल्म में ‘कंबाला’ के खेल से लेकर भूत कोला और जंगल की पूरी सीनरी को कैमरा जिस तरह कैप्चर करता है उसमें नयापन तो लगता ही है, साथ ही थिएटर में मौजूद दर्शक खुद को स्क्रीन पर चिपका नहीं बल्कि कहानी में शामिल महसूस करता है। जैसे सबकुछ आंखों के सामने ही घट रहा हो। स्पेशल इफेक्ट्स भी बहुत अच्छे हैं और कलर टोन आंखों को बहुत सुकून देने वाला है। ‘कांतारा’ के साउंड में दक्षिण कन्नड़ फोक का नेटिव फील तो है ही, साथ में एक रहस्यमयी एलिमेंट है जो जंगल के मिथक से जुड़ी कहानी को एक माया टाइप फील देने में बहुत खूब काम करता है।फिल्म की एक्शन कोरियोग्राफी भी बहुत कमाल की है।

 

डायरेक्शन और परफॉरमेंस

ऋषभ शेट्टी का स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन एक एनर्जी से भरा हुआ है। उनके नैरेटिव में एक फ्लो है जहां स्क्रीन पर कोई ढीला मोमेंट नहीं है और कहानी से कट जाने जैसा नहीं लगता। ढाई घंटे लम्बी फिल्म को उन्होंने पूरा टाइट रखा है और स्क्रीनप्ले की स्पीड नहीं हल्की पड़ती। उनके डायरेक्शन का दम तो स्क्रीन पर आपको दिखता ही है, लेकिन बतौर एक्टर उन्होंने जो किया है, वो जादुई से कम नहीं है।

शिवा के कैरेक्टर में उनकी रॉ एनर्जी पूरी फिल्म में बराबर फैली हुई है और स्क्रीन पर उनका पूरा ऑरा बहुत कमाल का है।फिल्म के आखिरी 40 मिनट रिषभ को देखकर आप समझ पाएंगे कि उनकी परफॉरमेंस में ऐसा क्या जादू है। अगर वो स्पॉइलर न होता, तो यहां जरूर बात करते। फॉरेस्ट ऑफिसर बने किशोर बहुत, राजा के वंशज के रोल में अच्युत और शिवा की लव इंटरेस्ट लीला के रोल में सप्तमी गौड़ा ने भी बेहतरीन काम किया है। जंगल और जंगल के देवता अपने आप में ऐसा रहस्यमयी विषय है, जिसपर बात करते कितने ही घुमक्कड़ों ने अपने ट्रिप की रातें गुजार दी हैं। जंगल के ट्रिप पर निकले दोस्त हों, हल्की सी ठंड वाली रात हो, हाथ में चाय (या निज श्रद्धानुसार कोई अन्य पेय) हो और जंगल में रहने वालों, उनके देवताओं पर बात होने लगे तो पूरी रात छोटी पड़ जाती है। ऐसी कहानियों में जो अदृश्य है, यानी कि दिखता नहीं उसे महसूस करने का एक थ्रिल भी होता है, और उसके दिख जाने का डर भी। दक्षिण से निकली ऐसी ही एक फिल्म थिएटर्स में खूब माहौल बना रही है ‘कांतारा’।

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