अंकिता भण्डारी मर्डर के बाद सुर्खियों में क्यों है उत्तराखण्ड की ’राजस्व पुलिस व्यवस्था’

सरकार ने स्पीकर के अनुरोध के बाद ’राजस्व पुलिस व्यवस्था’ को ख़त्म करने के प्रस्ताव को दी मंजूरी,


रंजन कुमार सिंह


अंकिता भंडारी हत्याकांड के बाद उत्तराखंड में राजस्व पुलिस व्यवस्था खत्म करने की मांग ने फिर जोर पकड़ा है। अंग्रेजों के जमाने की इस व्यवस्था के तहत पटवारी, कानूनगो ही संज्ञेय अपराध के मामले देखते हैं। जब तक उन्हें लगता है कि केस नियमित पुलिस के सुपुर्द किया जाना है, तब तक इसमें हो जाती है काफी देरी। 19 वर्षीय अंकिता भंडारी की कथित तौर पर उसके नियोक्ता पुलकित आर्य द्वारा हत्या के बाद उत्तराखंड में ‘राजस्व पुलिस’ प्रणाली को बदलने की मांग ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। आरोप है कि राजस्व पुलिस ने समय पर शिकायत दर्ज नहीं की और आरोपितों का पक्ष भी लेती रही। गौरतलब है कि 18 सितंबर की रात को अंकिता भंडारी की हत्या कर दी गई थी। चूंकि यह क्षेत्र राजस्व पुलिस के अधिकार क्षेत्र में आता है, तो आरोपी ने स्थानीय पटवारी को उसके लापता होने की सूचना दी, लेकिन कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। पटवारी वैभव प्रताप ने मामले की जानकारी आगे किसी को नहीं दी और छुट्टी पर चला गया।

गुमशुदगी सामने आने के बाद 22 सितंबर को अंकिता का केस उत्तराखंड की नियमित पुलिस को ट्रांसफर किया गया। तब कहीं जाकर हत्या के आरोप में आर्य समेत तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया जा सका। पटवारी वैभव प्रताप को निलंबित कर दिया गया था। बाद में मामले की जांच कर रहे विशेष जांच दल (SIT) ने लापरवाही के आरोप और पीड़िता के परिवार की अनदेखी कर आरोपी का पक्ष लेने के संदेह में वैभव प्रताप को गिरफ्तार कर लिया। अंकिता की जघन्य हत्या के बाद उत्तराखंड विधानसभा अध्यक्ष रितु खंडूरी ने सीएम पुष्कर सिंह धामी को पत्र लिखकर राजस्व पुलिस व्यवस्था को समाप्त करने का अनुरोध किया। फिर राज्य मंत्रिमंडल ने भी अब इस प्रणाली को नियमित पुलिस से बदलने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। हालांकि उत्तराखंड में नियमित पुलिस बल मौजूद है, लेकिन इसका अधिकार क्षेत्र कई पहाड़ी क्षेत्रों में नहीं है। यदि क्षेत्रफल की बात करें तो वर्तमान में राजस्व पुलिस के अधिकार क्षेत्र में राज्य का 50 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल आता है, जहां सूबे की लगभग 25 प्रतिशत आबादी रहती है।

 राजस्व पुलिस व्यवस्था

लगभग एक सदी पहले यहां राजस्व पुलिस की व्यवस्था अंग्रेज लाए थे, जब पहाड़ी इलाकों में अपराध कम हुआ करते थे। इस व्यवस्था का उद्देश्य नियमित पुलिस की तैनाती न कर पैसे और संसाधनों की बचत करना था। अंग्रेजों की इस अनूठी राजस्व पुलिस प्रणाली के तहत राजस्व विभाग के सिविल अधिकारियों के पास ही नियमित पुलिस की शक्तियां और जिम्मेदारियां होती थीं। (ऐसी ही शक्तियां और जिम्मेदारियां तब भारत के कुछ हिस्सों में जमींदारों के पास भी थीं।)  जब भी कोई अपराध होता तो क्षेत्र की राजस्व पुलिस ही प्राथमिकी दर्ज करती, मामले की जांच करती। फिर आरोपी को गिरफ्तार कर स्थानीय अदालत में आरोप पत्र भी दाखिल करती। हत्या, बलात्कार या अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के खिलाफ जघन्य अपराधों को नियमित पुलिस को स्थानांतरित कर दिया जाता है।

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हालांकि इस प्रक्रिया में कई दिन या कभी-कभी महीनों लग जाते थे, क्योंकि राजस्व पुलिस पहले जिला पुलिस अधीक्षक (SP) को सूचना देती थी। इस सूचना के आधार पर SP नियमित पुलिस स्टेशन को मामला सौंपते थे। अक्सर इस तरह की देरी से महत्वपूर्ण सबूत गायब हो जाते या किन्हीं अन्य वजहों से केस कमजोर हो जाता था। अगर अन्य राज्यों की बात करें तो राजस्व अधिकारियों का मुख्य कार्य गांवों की भूमि, खेती और राजस्व से जुड़े रिकॉर्ड बनाए रखना। सरकार की ओर से राजस्व एकत्रित करना होता है। पटवारी और कानूनगो जैसे राजस्व अधिकारी फसल उत्पादन से जुड़े आंकड़ों को जुटाते हैं। साथ ही समय-समय चुनाव संबंधी कर्तव्यों का पालन करते हैं। जनगणना और साक्षरता का आंकड़ा एकत्र करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की होती है। सरकारी योजनाओं को लागू करने समेत जन्म, मृत्यु और जाति प्रमाण पत्र तैयार करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की है।

 

राजस्व पुलिस का इतिहास

19वीं सदी में टिहरी के शासक गोरखाओं से अपना इलाका हार बैठे। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों से गोरखाओं को गढ़वाल से बाहर करने में मदद मांगी। साथ ही आश्वासन दिया कि इसके एवज में वे कुछ न कुछ देंगे भी। हालांकि युद्ध खत्म होने के बाद वे अंग्रेजों को कुछ नहीं दे सके। ऐसे में अंग्रेजों ने गढ़वाल का पश्चिमी हिस्सा अपने पास रख लिया। 1815 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को गढ़वाल से बेदखल कर दिया। इसके बाद सैगौली की प्रसिद्ध संधि के अनुसार काली नदी तत्कालीन ब्रिटिश भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा बन गई। अंग्रेज वर्तमान उत्तराखंड में पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों से राजस्व चाहते थे।

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ऐसे में उन्होंने मुगल प्रशासन की तर्ज पर पटवारी, कानूनगो, लेखपाल आदि के पदों के सृजन के साथ एक राजस्व प्रणाली विकसित और  स्थापित की। इसके साथ ही उन्होंने महसूस किया कि पहाड़ी इलाकों में अपराध की दर बहुत कम है। इसे देख-समझ कर एक अनौपचारिक निर्णय लिया गया कि अल्मोड़ा, रानीखेत और नैनीताल जैसे शहरों को छोड़कर अन्य शहरों के लिए विशेष पुलिस की कतई जरूरत नहीं है। 1857 के बाद ब्रिटिश पुलिस एक्ट 1861 अस्तित्व में आया। इसके आलोक में अब ’राजस्व पुलिस व्यवस्था’ को कानूनी आधार देना जरूरी हो गया था। 1874 में अनुसूचित जिला अधिनियम भी लागू हो गया। इस अधिनियम का एक मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश भारत के ऐसे हिस्सों के लिए विशेष प्रावधान रखना था जो अपनी विशिष्ट भौगोलिक, जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं के कारण सामान्य कानूनों के अंतर्गत कभी नहीं लाए गए थे। इसके तहत पटवारी को थाना प्रभारी के अधिकार दे दिए गए। उनके सुपरवाइजर अधिकारी को कानूनगो बना दिया गया। यह परंपरा आजादी के बाद भी जारी रही। उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के अलग होने के सात साल बाद उत्तराखंड पुलिस अधिनियम ने 1861 के अधिनियम का स्थान लिया। यह अलग बात है कि इसके बावजूद राज्य के पहाड़ी हिस्सों में राजस्व अधिकारियों के पास पुलिस अधिकारी की शक्तियां और जिम्मेदारियां निहित रहीं।

 राजस्व पुलिस व्यवस्था में जुड़ी अंतर्निहित समस्याएं

राजस्व पुलिस प्रणाली को खत्म करने की जरूरत की वकालत करते हुए उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों राज्यों में सेवा देने वाले एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी के मुतबिक बदलते दौर में जब अपराध वैश्विक हो गया है, तो राजस्व पुलिस प्रणाली किसी काम की नहीं रही है। उनके मुताबिक सबसे बड़ी समस्या यही है कि राजस्व अधिकारियों को बिना किसी न्यूनतम प्रशिक्षण के पुलिसिंग का अतिरिक्त कार्य दे दिया जाता है। गौरतलब है कि अपराध की जांच और मामले को हल करने के साथ-साथ पुलिस का एक प्रमुख कार्य आपराधिक गतिविधियों को रोकना भी है। अपराध की रोकथाम समेत खुफिया जानकारी जुटाना या कानून व्यवस्था का डर बनाए रखना राजस्व अधिकारियों के बस की बात नहीं है। मामलों को स्थानांतरित करने में ही उन्हें कभी-कभी कई दिन या महीने लग जाते हैं और तब तक सारे सबूत खत्म हो जाते हैं।

सीमावर्ती राज्य होने की वजह से उत्तराखंड सामरिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस परिदृश्य में राजस्व पुलिस का अस्तित्व बहुत बड़े खतरे की बात साबित हो सकती है। इसके अलावा उत्तराखंड एक पर्यटन राज्य भी है। ऐसे में समस्या तब पैदा होती है, जब कोई मामला दूसरे राज्य से जुड़ा होता है। अन्य जिलों या राज्यों के साथ समन्वय नियमित पुलिस तो आसानी से कर सकती है, लेकिन राजस्व पुलिस के लिए बेहद मुश्किल भरा काम है। फोरेंसिक मदद लेने में भी राजस्व पुलिस की अपनी सीमाएं आड़े आती हैं। सबसे बड़ी बात नियमित पुलिस में एक पदानुक्रम होता है। आपराधिक मामले की गंभीरता के आधार पर एक सब-इंस्पेक्टर (SI) से लेकर एक डिप्टी SP तक का अधिकारी केस की जिम्मेदारी संभालता है। हालांकि राजस्व पुलिस के मामले में पटवारी ही सबसे बड़ा जांच अधिकारी होता है। साथ ही राजस्व पुलिस अधिकारी पुलिस-बल अधिनियम के तहत नहीं आते हैं, जो संविधान द्वारा प्रदत्त कुछ अधिकारों को सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के सिलसिले में पुलिस को प्रतिबंधित करता है।

 योजनाएं और चुनौतियां

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 2018 में एक ऐतिहासिक फैसले में राज्य सरकार को राजस्व पुलिस प्रणाली की सदियों पुरानी प्रथा को खत्म करने का आदेश दिया था। इस आदेश में कहा गया था, ‘उत्तराखंड के कई हिस्सों में विद्यमान एक सदी पुरानी राजस्व पुलिस व्यवस्था को छह महीने में खत्म कर दिया जाए।’ अदालत ने यह आदेश टिहरी गढ़वाल जिले के एक गांव में 2011 में दहेज के लिए ससुराल वालों द्वारा एक महिला की कथित हत्या के आलोक में दिया गया था। यह मामला भी राजस्व पुलिस प्रणाली के अंतर्गत आता था। हालांकि उत्तराखंड सरकार ने इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी।

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अब इस महीने की शुरुआत में अंकिता भंडारी हत्याकांड के बाद राज्य मंत्रिमंडल ने राज्य में राजस्व पुलिस प्रणाली को नियमित पुलिस से बदलने के प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दे दी थी।  इसके तहत योजना को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाना है। पहले चरण में मौजूदा थानों और पुलिस चौकियों का क्षेत्रफल बढ़ाया जाएगा। इसके अलावा जिन क्षेत्रों में पर्यटन और व्यावसायिक गतिविधियां बढ़ी हैं, वहां छह नए पुलिस थानों और 20 पुलिस चौकियों की अनुमति भी दी गई है। राज्य के एक पूर्व पुलिस अधिकारी ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि राजस्व पुलिस व्यवस्था को खत्म करना आसान काम नहीं है। ‘कई लोगों का इसे जारी रखने में निहित स्वार्थ है। राजस्व पुलिस के अधिकार क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में पुलिस का डर नहीं होता है और वहां तमाम अवैध गतिविधियां चलती रहती हैं। इसके लिए उन्होंने कुछ पिछली घटनाओं का जिक्र किया, जब सरकार ने राजस्व पुलिस के इलाकों को नियमित पुलिस को स्थांतरित कर दिए थे। सरकार के इस निर्णय के खिलाफ जमकर हिंसक प्रदर्शन हुआ था।

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